Book Title: Jindas Suguni Charitra
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Navalmalji Surajmalji Dhoka

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Page 108
________________ जी० स०।। दरशाइ । सो भव्या भव्या दोनो पाइ जी । पंचमी लब्धी भव्यज प्रवृताइ ॥ भाइ ॥ खण्ड ४ १० ॥ ते 'करण लब्धी' कहवावे । तस तीन प्रकारज थावे जी । अधः, अपूर्व, अनि वृत. थाइ ॥ भाइ ॥ ११ ॥ एक एकसे विशुद्ध यह जाणो । तब होवे चौथो गुणस्थानो ५२जी । ते सम्यक्त्वी कहवाइ ॥ भाइ॥ १२॥ द्रबे सम्यक्त्व धारी । कुदेव-गुरु-धर्म वारी जी । करे तत्व तणी सच्चाइ ॥ भाइ ।। १३ ॥ फिर वृत धारे ते बारे । जिम रूके आ-D श्रव द्वारे जी । करे शुद्ध पौषध समाइ ॥ भाइ ॥ १४ ॥ दान उलट भाव देवे । सीले वस इन्द्री लेवे जी । तप जप थी तन सुखाइ ॥ भाइ ॥ १५ ॥ मंत्री भाव सहू थी। राखे । दुर्गुणी पे दया द्रष्ट न्हाखे जी । होवे गुणही गुणका गृहाही ॥ भाइ ॥ १६ ॥ इम लख भावे गृह वास रह वे । ते सागरी धर्म को सेवे जी । फिर वैराग्य भाव जो ५२ आइ ॥ भाइ ॥ १७ ॥ त्रिविध आंरभ को त्यागे । क्षांत दांत शिव मार्ग लागे जी दरबेभावेते मढ थाइ॥ भाइ॥१८॥होड सिंह समाना सरा। क्षम दम उपशम में पूरा जी । धर्म शुक्ल यान ही भ्याइ ॥ भाइ ॥ १९ ॥ पंच प्रमाद क्षपावे । अपूर्व कर्ण गुस्थान पावे जी । होवे अवेदी अकषाइ॥ भाइ॥ २०॥ मोहणी सर्व क्षय करने । रहे सुक्ष्म क्रिया पर ने जी । तब ज्ञान होय अपडवाइ ॥ भाइ ॥ २१ ॥ इम जाणी

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