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त्रिसु
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देखो मुख ॥ महा पातकी यह मानवी । संगे पाम सो दुःख || कर्म ॥ १४ ॥ रहवाने जागा नहीं । खाने को नहीं अन्न ॥ वस्त्र पण जीरण रह्या । अपकीर्ती थी खिन्न || कर्म ॥ १५ ॥ घबराया घृणा दुःख थी। सूजे न उपाय || दुःखी हुइ नरम पडचा || पण दया कीने आय ॥ कर्म ॥ १६ ॥ एक दिन छेड़ सला करे । भाइ इहां न रहवाय ॥ देश चोरी थी परदेश की । भीख भली कहवाय ॥ कर्म ॥ १७ ॥ परदेश चाल्या छेउं । वाटे मिलीया चोर ॥ वस्त्र लुंट नागा किया | मार मारी कठोर ॥ कर्म ॥ १८ ॥ पता थी तन ढांक के । आया गामडा मांया ॥ भीख मांगी भागा फटा । वस्त्र मंगी पहर्याय ॥ कर्म ॥ १९ ॥ नोकर रहे कि घरे । कर्म टिकण दे नाथ ॥ इम ग्रामानु ग्रामे फिरे । कदी मांग के खाय ॥ कर्म ॥ २० ॥ कर्म पलट्या पलटे स्हू । देश के परदेश || दूजी ढाल अमोलिक कहे । पुण्ये सुख विशेष || कर्म ॥ २१ ॥ ७ ॥ दुहा ॥ इम फिरतां मही मंडले । पोलास पुरते आय ॥ शेहर मोटो देखी करी । छेउं जणां हर्षाय ॥ १ ॥ इण स्थान उपजीविका । सुखे होती देखाय ॥ भूखा छां दिन तनिका । आज तो लास्यां | कमाय ॥ २ ॥ नार्या कहे फिरवा तणी । हम में शक्ती नाय ॥ इम बातां करतां थका मध्य बजारे आय || ३ || हवेली जिनदास की । देखी कहे भरतार || तुम तीनों बेठो
रुण्ठ
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