Book Title: Jindas Suguni Charitra
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Navalmalji Surajmalji Dhoka
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परिवार ने । लाहणी वली दीध ॥ दीधो जो सह लेगया । पर संरया कीध ॥ वर्म । ३ ॥ नगर सेठ रख्या घणा । धूया जमाइ अंतराय ॥ पण धर्म ज्ञाने करी । रह्या समता लाय ॥ कर्म॥४॥सोग थकी निवेत हाधन बेंचन काम ॥ उमाया तीनो आय ने। कोटडी खोली जाम ॥ वर्म ॥ ५॥ बारी खुली दीठी तदा । मन में (ड्यो वैम ॥ धन बस्त्र द्रष्टे ना पाया ।खोयो चिन्तीत खेम ॥ कर्म ॥ ६ ॥ धसको पडयो तब पेट में तन हुयो बलहीन ॥ ८ड्या धरणी भींत आसरे। मुख हया तस दीन ॥ वर्म ॥ ७॥ ने.IN णाथी नार वही रह्यो । किण थी कहो नहीं जाय ॥ हाथे विधा वर्म ते । दोष किण |परठाय ॥ कर्म ॥ ८॥ उदारो माल लाय ने दियो सगा ने । खवाय ॥ जब मुहता। |पुरी हुइ । ऊभा लेणायत आय ॥ कर्म ॥ ९ ॥ देवण को दमडी नहीं । नरमाइ नहीं अंग ॥ उलट लड्या लेणदार थी । कर्मे बुद्धि हुइ भंग ॥ कर्म ॥ १० ॥ अर्ज करी दरवार में । कामेती आय ॥ लिल्लाम करी हवेली ने । रह्यो धन छुडाय ॥ कर्म ॥ ११ ॥ लेणायत धन वांट के। ले गया निज स्थान ॥ निराधार छेउं भया । जोवो कर्म का। काम ॥ कर्म ॥ १२ ॥ जिहां २ जाइ ऊभा रहे । तिहां २ पावे धिक्कार ॥ यां धर्मी ने सताविया । न्हारख्या मा वाप मार ॥ कर्म ॥ १३ ॥ कोइ ऊभा राखे नहीं । कहे मत

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