Book Title: Jindas Suguni Charitra
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Navalmalji Surajmalji Dhoka
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खुश होय ॥ ५॥ ॥ ढाल ५ पांचमी ॥ भूडीरे भूख अभागणी ॥ यह० ॥ नरभी मधुरसुगणी कहे । धन्य २ तुम अवतार मातजी ॥ धर्म कथा सुणवा तणो । आपके मन जे प्यार मातजी ॥१॥ संपथकी लक्ष्मी रहे॥०॥ संपथी कुल सोभाय मा०॥ इह भव पर भव सुखलहे । संप सदा सुखदाय मा० ॥ सं॥२॥ संप फल दरशाववा । दीया द्रष्टांत श्रेयकार मा० ॥ चित्रशाल पुरशाभतो । जितशत्रु सिरदार मा० ॥ सं ॥ ३ ॥ धनदत्त । सेठ तिहा रहे । पुफोतरा तस नार मा०॥ पुतरपन्दरह शोभता। बुद्धवंत विनय विचार मा० ।
॥ सं ॥ ४ ॥ परणाया योग्य कुलमें । सुत सुता बध्यो परीवार मा० ॥ कुटुम्ब हुयो घर सामटो । खरचे धन घटार मा०॥सं ॥ ५॥ अंतराय उदयकरी । लक्ष्मी न सदनेवि शेष मा० ॥ पण संप आपसमें घणो । हिल मिलरहे हमेश मा० ॥ सं ॥ ६ ॥ एकत्ररही उद्यम करे । मिल्यापर करे संतोष मा० ॥ तात हुकम सहू सिर धरे । करे कुटुरब को पोष मा० ॥ सं ॥ ७॥ संया समय नित्य सेठजी । भेलो कर परिवार सर्व मा०॥ उपदेश करे संप राखवा । कोई मत करजो गर्व मा०॥ सं ॥ ८॥ नरमाइ में गुण घणा
। सर्व जक्त वस थाय मा० ॥ दुशमण पण सज्जन हुवे । शोभा होय सवाय मा० ॥ सं ॥ N९ ॥घणा पुण्य प्रशादसे । घणा जन को मिलेजोग मा० ॥ घणा मिली थोडा हुवे। जा.

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