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जि० स०
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तस कर्म को रोग मा० ॥ १० ॥ कोयला घणा भेलाहुइ । लोहा को करदे तोयं मा ० ॥ तिम धणा रहे संप थी । तो दुशमण पाणी होय मा० ॥ सं ॥ ११ ॥ इत्यादी उप देश थी । हल करमी खुश थाय मा ० ॥ सूख संप देखी एक एकका । आपसमें सुख पाय मा० ॥ सं॥१२॥ एकदा धन खुटी यो सहू । कमाइ हुइ बंद मा० ॥ भूखे टलबले ते सहू । पण छूटे न समंद मा ० ॥ सं ॥ १३ ॥ जुदा जावण चावे नहीं । संपथी सेवे दुःख मा ० ॥ अनुराग देखी आपसमें । माने घणो ते सुख मा० ॥ सं ॥ १४ ॥ तेतले - taaraणी | पडी नहीं रहवा जोगमा ० ॥ विती में वृद्वी हुइ । चिन्ते यह कर्म रोग मा० ॥ सं॥१५॥ कारीगर लगाय के । बन्धावूं जो इण तांय मा० ॥ तो खरचण नाणो नहीं । कारये कांइ उपाय मा० ॥ सं० ॥ १६ ॥ हाथो हाथ मिली सहु । अंबी न्हाखां बान्ध मा० ॥ सेठ बुलाय सहू भणी । सहु दोड्य चित सांध मा० ॥ सं० ॥ १७ ॥ कर जोडी ऊभा सामने । कहे फरमावो काम मा० ॥ देखी आमण द्रुमणा । भूखे कुम लाया तमाम मा० ॥ सं० ॥ १८ ॥ भींत पडी बाडा तणी । खरचण नहीं है दाम मा० ॥ हाथोहाथ बान्धो सहू । विना दाम होवे काम मा० ॥ सं० ॥ १९ ॥ सर्व सुणी - शी हुवा । मृतिका काडण काज मा० ॥ कुशी कुदाला लाय ने । खोदे जागा मिल समा
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खण्ड २
१ पाणी
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