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जि०म०
खण्ड ३
१७ ॥ सागन खाइ डोकरे । निज स्थान के जाइ सूता जी भाइ ॥ निध्यान घरे आया सेठ जी । चिन्ता कीचमें खूता जी भाइ ॥ नारी ॥ १८॥ धन धरती थी कहाडीयो । चारी पांत्या कीधी हो भाइ ॥ निजथे थोडो रख्यो। ए धन की जग विधी जी भाइ॥ नारी ॥१९॥ खुल्लो मेली धन सहु।प्रमाद के बस पहुंता जी भाइ॥ छेउ जणा खुशी हुवा।। सवारे होसां जुदा जी भाइ ॥ नारी ॥ २० ॥ इम कलेह करे कामणी । धरमी सम भाव, राखे जी भाइ। तीजे हुल्लास ढाल तीसरी। ऋषि अमोलख दाखे जी भाइ ॥नारी ॥२१॥७॥
दुहा॥ सयन स्थान जिनदास जी।ओलंभो सुगणीने देय॥जेहर फेलायो कुटम्ब में।जाण होइने । अथेय॥१॥सुगणी बीती वारता।सर्व दीवी संभलाय ॥सोगन दिया आप का। तब कह्या में स्व ।
पनाय ॥ २ ॥ पहिली कलह करन का। तीनो कीया पञ्चखाण ॥ उन कही में खीजीनही । |सुण तस खोटी वाण ॥ ३ ॥ जिण दिन थी हूं इण घरे । कीधो छे परवेश ॥ तिण दि न थी जोइ रही । नित्य प्रत्य होय कलेश ॥ ४॥ सासू सुसरा तेह थी। आति हुवा बे-: ३३ जार । हिवे सह खुशी रहे । इसो करो को विचार ॥ ५॥ ७ ॥ ढाल ४ चौथी ॥ पंड
व पांचू वंदतां ॥ यह • ॥ जिनदास कहे सांभलो । आपां दोनों सवी ने दुःख दायजी Aओगण तो नहीं आपणो । पण कर्मोदय अंतराय ॥ १ ॥भाविक जन सांभलो । धर्मी सद