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छपय छंद ॥ सत्यवंत दूजा भणी सुखदे सुख पावे । धर्मवंत नर तणा दुःख संकट विर। लावे । तप जप ने सु पसाय देवता सानिध थावे । दान पुण्य पसाय अखंड कीर्ती फे । लावे । सत्य धर्म तप दान थी। प्रत्यक्ष सुख संपत लही। अमोल जिनदास सुगुणी चरी ज्ञान द्रष्ट देखो सही ॥ १ ॥ इति तृतीय स्कन्ध सत्य प्रवृन्ध रूप समाप्त ॥ ३ ॥
N॥ दुहा ॥ वर विमल वितराग बिभू । निराकार अबीकार ॥ शाश्वत स्थल शिव अचल ।
तास चरण नमस्कार ॥१॥ गुरू प्रकाशक ज्ञानका । भसक सत्या सत्य ॥ विनाशक । मिथ्या तिमर । दाता सत्य ने पथ्य ॥ २॥ आराधी गुरू वयण ने। तिरीया जीव संसार
जिनदास सुगुणी परे । दोनों भव जय कार ॥३॥ चउ विह धर्मते विषे । दान, कह्यो प्रधान ॥ अवसरे लाभ जे आदरे । तेह ने सुख सह स्थान ॥ ४ ॥ दान धर्म करतां थकां । जो देवे अंतराय ॥ ते छेउं प्राणी परे । सुख किहां नहीं पाय॥ ५ ॥ पुण्य की बान्धी लक्ष्मी । पुण्यवंत साथे जाय ॥ पापी पाप उदय करी । सुख किहां थी पाय ॥ ६॥ तेही महेंद्रपुर नगर में । सेठ सोहन शाह घेर ॥ छेउं सयन भवन विषे । निशा समय करे लेहर ॥ ७॥ शावासी देवे नारीने । तुम में बुद्व सवाय ॥ अवसर जोइ कल