Book Title: Jindas Suguni Charitra
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Navalmalji Surajmalji Dhoka

View full book text
Previous | Next

Page 34
________________ जी० सु० ॥ दोहा ॥ अनंतानंत ज्ञान धर । नि : केवल जिण श्वरूप ॥ अव्यावहा अखड जेह । खण्ड २ प्रणमु विश्व के भूप ॥ १॥ राग द्वेष दो बन्ध में। बन्ध्यो जीव अनाद ॥ ते छेदन दिन विध धर्म । अर्पे चित समाध ॥ २ ॥ ज्ञानी ज्ञान बले करी। जिते राग रु द्वेष॥ अनादी प्रवय अज्ञानी जन। वन्धन करे विशेष ॥३॥ जेह धारी जिनपन्थ ने। पतली करे कषा य ॥ सम भवे वरते सदा । तेही शिवगत पाय ॥ ४॥ ज्ञानी गुनी धर्मात्मा । सुगुणी - |ने जिनदास ॥ राग द्वेष पतला किया । तस गुण करूं प्रकास ॥ ५॥ उत्तम से उत्तम मिले । मिले नीच से नीच ॥ नीर जावे सरीता विषे । कचरो फस रहे कीच ॥ ६ ॥स १ नदी । द्गणी दम्पती सदा । तन मन धने हुल्लास ॥ करे करावे साज दे। जैन धर्म अभ्यास ॥ ४/७॥ चार घडी प्रभात के। धणीधणी याणी ऊठ॥ धर्म चरचा अवश्य करे। फिरवृते वृत छूट ॥ ८॥ त्रीकाल मुनीवर तणी । करे सेवा धर प्रेम ॥ संतोषे मात तात को । बधा | य धर्म दान नेम ॥९॥४॥ ढाल १ पहिली ॥ वीरा म्हारा गज थकी ऊतरो ॥ यहदेशी ॥ | धर्मी नर शोभा लहे । धर्मी सब को हित चाहावे जी ॥ बुरो किसको चिन्ते नहीं । | तेह धर्मी साचा कहवावे जी॥धर्मीनर शाभालहे॥७॥१॥तीनों भाइ भोजाइ ने। समजावा || | के काजेजी ॥ दोनो क्षप कीधी घणी । उपदेशादी साजेजी । धर्मी ॥ २ ॥प्रत्यक्ष परोक्ष

Loading...

Page Navigation
1 ... 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122