Book Title: Jindas Suguni Charitra
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Navalmalji Surajmalji Dhoka

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Page 24
________________ खण्ड जरे में देखी बात ॥ ते झूटी किम नीकली । इणमें किम दोषी तात जी ॥ अ० ॥ ८॥ जी० सु० || नित जातीहूँ स्थानके जी । सीखती धर्म को ज्ञान ॥ तिहां आवता जिनदास जी। यह हूंता चतुर सुजाण जी ॥ अ० ॥ ९ ॥ अगवाणी वेठीकरी जी । करता प्रश्न जवाब ॥ यत्नाथी हालता चालता । तिण घरमें किसा सबाबजी ॥ अ० ॥ १०॥ धमी देखी I मुजतातजी हो। दीनी मने इणघर ॥ माठा कर्म ए माहेरारे । करणा किश्यो फाकरजी ॥ अ॥ ११ ॥ भक्ति पतीकी साची हूंतीजी । के सहू कपटे कीध ॥साचीहूवे तोऐसा .घर। । धर्मी रहेकिण विधजी ।अ०॥ १२ ॥ जिणरा पुत्र शाणा इसाजी। तेघर किमरहे अजाण ॥ ठगाणीहूं अब किम करुंरे । इणपरमें खानपानजी ॥अ०॥ १३ ॥ खाटा अन्नखाया थकाजी । मनपण खाटो होय ॥ पाणी जिसीवाणी कही। मेंजाणा नकरु द्रोहरे॥ अ०॥ १४ ॥खानका सागन मुजभणीजी। निपजे ने यमा विन ॥ अणगलपाणी पीवूनहीं । किम रहणो हावे घरइनरे ॥ अ०॥ १५ ॥ संसारी सगपण कारणेजा । धर्म । खड्यो नहींजाये ॥ अनंतवार सगपण हुयो । पण धर्म दुर्लभ मिल्यो आय जी ॥ अ०॥ १६ ॥ मरणो तो निश्चय सही जी । पहले पीछे एकवार ॥ धर्म खंडी ने जीबणो । एतो मृत्यू तुल्य जमार जी ॥ अ०॥ १७ ॥ धर्म विना में न इच्छु | १०

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