Book Title: Jindas Suguni Charitra
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Navalmalji Surajmalji Dhoka
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जी० सु०
११
आइ फर्म के रोगी । तिण थी कहूं हित चित छोगी । थे किम हुया कू कर्म भा गी ॥ सुणो ॥ १ ॥ लक्ष चौरासी मांहे भ्रमता । उंच नीच जाते दमता । पुण्ये जन्म मिल्या गमता । हिवे सुख उपाय क्यों नहीं रमता ॥ सुणो ॥ २ ॥ आर्य क्षेत्र उतम कुल आया ॥ महा पुण्ये जैन धर्म पाया । फिर क्यों डूवावो मिथ्या काया । ए
किम मचाया ॥ सुणा ॥ ३ ॥ अणगल पाणी पीवासही। कंदमूल यह रंदा रही। चंदरता की जतना नहीं । वली रात्री भोजन रह्याखइ ॥ सुणो ॥ ४ ॥ नित्य उठ घर धंदेलाणो । धर्म करणी से दूरभागो | नवकार कधी मुखथी नवागो । तो पडीक्कमणोतो रह्यो आगो ॥ सुणो ॥ ५ ॥ जेामुजने घर राख्यां चावा । तामें कहूंसो छिटकावो । तिणसे दाइ भव सुख पावो ॥ वली घर तन इणथी साभावो ॥ सुणो ॥ ६ ॥ जेआण छाण्यो पाणीपीवे । मच्छ पोरादी मरेजीवः । बालादी रोगथी ते रीवे । परभव लेवे नर्क सीवे ॥ सुणो ॥ ७ ॥ कंदमूल मांस जिस्यो दाख्यो । अभक्ष जैनागमे भाख्यो । भक्षक ने अधोगती न्हाख्यो । जैनी हुइ ने कुण चाख्यो ॥ सुणो ॥ ८ ॥ अंधो जीमण रात तणो । त्रस जीवांरो भक्ष बणो । कुष्टादी रोगे होवे मरणो । आगे नर्क गती ए पचणो ॥ सुणो ॥ ९ ॥ राते रांध| गोने लीपणो । विलोवणो झाडू पीसणो । इण से घात होवे त्रस तणो । विषारीजीव
खण्ड १
११

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