Book Title: Jindas Suguni Charitra
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Navalmalji Surajmalji Dhoka
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हुवे घणा उपकार ॥ ४ ॥ हिवे वेफिकर नित्यप्रते । लेवो धर्म कोलाभ ॥ अवसर उचित || खण्ड १ कहे तातने । तेसुणधर उत्साह ॥ ५॥ ॥ ढाल ६ छट्टी ॥ रेलाला वीछाया महारो । | दाजणा ॥ यह ॥ रेलाला फेला परसंस्या जिनदासकी । याता धर्म तणे पसाय रे लाला
॥ लघुवय पण गुण आगलो । तेहथी अगवानी रहवायरे लाला ॥१॥विन प्यारे प्यारो । Kधर्मी छे ॥ आं० ॥ पापीविन खरे खारो होयरे लाला॥ इमसुण धर्म समाचारो । तो
उभय भव सुख जोयरे लाला ॥विन०॥ २ ॥ मित्र धर्मचंद सरीखा । दिन२ चडते प्रेमरे लाला ॥ श्रीपत शाहा देखी करी । कांइ मनमें पामे क्षेमरेलाला ॥ विन० ॥ ३॥ एक*दा श्रीपत धर्मचंदजी । सुगुणीने तेहनीमातरे लाला ॥ धर्म चरचा करतांथकां । निकली . | जिनदास की बात रे लाला ॥ विन०॥ ४ ॥ सेठ पूछे धर्मचंदथी । जिनदास किणरा | पूतरे लाला ॥ लघुवय धर्म रंगे रंग्यो । कियो जाण पणो अद्भूतरे लाला ॥ विन०॥ ५॥जोडीसागे सुगणी तणी । जोमिले जातने पांतरे लाला ॥तोठामः वीजो नजोववो । बाइ पुण्य थी जम्यो ए तांतरे लाला ॥ विन०॥६॥ धर्मचंद हर्षी कहे । वेहे सोहन । शाह कँवारे लाला ॥ जाती कुल उत्तम घणो । वली घरमें घणो परिवाररे लाला ॥ विन० ॥ ७॥ धर्मवंता ने पुण्यवंता ।रुप गुणवंत इशा और रे लाला ॥ जोतां देशविदेश

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