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स्वस्थ, धैर्यवान, निरभिमानी, स्थिरप्रवृति, प्रियदी और द्वेषवृत्तिरहित पुरुष प्रधान मंत्री पद के योग्य है 1जिनमें इसके एक चौथाई या आधी योग्यतायें हों उन्हें मध्यम या निकृष्ट मंत्री समझना चाहिए । मंत्री नियुक्त करने से पूर्व राजा को चाहिए कि वह प्रामाणिक, सत्यवादी एवं आर्य पुरुषों के द्वारा उनके निवास स्थान तथा आर्थिक स्थिति का, सहपाठियों के माध्यम से उनकी योग्यता तथा शास्त्रप्रवेश का, नये-नये कार्य में नियुक्त कर उनकी बुद्धि, स्मृति तथा चतुराई का, व्याख्यानों एवं सभाओं के माध्यम से उनकी वाक्पटुता, प्रगल्यता एवं प्रतिभा का, आपत्तियों से उनके उत्साह. प्रभाव तथा सहिष्णुता का, व्यवहार से उनकी पवित्रता , मित्रता एवंदृढ़स्वामिभक्ति का सहवासियों एवं पड़ोसियों के माध्यम से उनके शील, बल, स्वास्थ्य, गौरव, अप्रमाद तथा स्थिरवृत्ति का पता लगाए और उनके मधुरभाषी स्वभाव तथा द्वेषरहित प्रकृति की परीक्षा स्वयं राजा करें ।
राजा के मित्र ऐसे होने चाहिए जो वंश परम्परागत हों, स्थायी हों, अपने वंश में रह सकें, जिससे विरोध की सम्भावना न हो तथा जो सपा आने पर सहायता कर सके।
सारे कार्य कोष पर निर्भर है। इसलिए राजा को चाहिए कि मनसे पहिले वह कोष पर ध्यान दे राष्ट्र की सम्पत्ति को बढ़ाना, राष्ट्र के चरित्र पर ध्यान रखना, नोरों पर निगरानी रखना, राजकीय अधिकारियों को रिश्वत लेने से रोकना.सभी प्रकार के अनोत्पादन को प्रोत्साहित करना, जल-स्थल में होने वाली प्रत्येक व्यापार योग्य वस्तुओं को बढ़ाना, अग्नि आदि के भय में राज्य की रक्षा करना, ठीक समय पर यथोचित कर वसूल करना और हिरण्य आदि की भेंट लेना ये सब कोषवृद्धि के उपाय है ।
जनपद की स्थापना ऐसी होनी चाहिए कि जिसके बीच में तथा सीमान्तों में किले बने ही. जिसमें यथेष्ट अन्न पैदा होता हो, जिसमें विपत्ति के समय वन पर्वतों के द्वारा आत्मरक्षा की जा सके, जिसमें थोड़े क्रम से ही अधिक धान्य पक्षहानके, जिसमें शत्रुराजा के वियों की संख्या अधिक हो, जिसके पास पड़ोस के राजा दुर्बल हों. जो कीचड़, कंकड़, पत्थर, ऊसर भूमि चार जुआरो, छोटे छोटे शत्रु, हिंसक जानवर एवं घने जंगलों मे रहित हो, जो नदी तालाबों से सज्जित हो, जिसमें खेती, धान,सकड़ियों तथा हाथियों के जंगल हो,जो गायों के लिए हितकर हो जिसका जलवायु अच्छा हो, जो लुधकों (शिकारियों) से रहित हो, जिसमें गाय, भैंस. नदी, नहर, जल, थल आदि सभी उपयोगी वस्तुयें हों, जिसमें बहुमूल्य वस्तुओं का विक्रय हों, जो दण्ड तथा कर को सहन कर सके, जहाँ के किसान बड़े मेहनती हो, जहाँ के मालिक समझदार हों, जहाँ नीचवणं को आबादी अधिक हो और जहाँ प्रेमी तथा शुद्ध स्वभाव के लोग असते हो |
जन पद सीमाओं को चारों दिशाओं में राजा युद्धोचित प्राकृतिक दुर्ग का निर्माण करवाए। दुर्ग चार प्रकार के हैं - (1) ओदक (2) पार्वत (3) धान्वन (4) वनदुर्ग चारों ओर पानी से घिरा हुआ सपू के समान गहरे तालाबों से आवृत स्थल प्रदेश ओदक दुर्ग कहलाता है । बड़ीबड़ी चट्टानों अथवा पर्वत की कन्दराओं के रूप में निर्मित दुर्ग पार्वत दुर्ग कहलाता है । जल तथा घास आदि से रहित अथवा सर्वथा ऊसर भूमि में निर्मित दुर्ग धान्वन दुर्ग है । चारों ओर दलदल से घिरा हुआ अथवा कांटेदार समान झाड़ियों से परिवृत दुर्ग वनदुर्ग कहलाता है । इनमें औदक तथा पार्वत दुर्ग आपत्तिकाल में जनपद की रक्षा के उपयोग में लाए जाते हैं। धान्न वन और वनदुर्ग वनपालों की रक्षा के लिए उपयोगी होते हैं अथवा आपत्ति के समय इन दुर्गों में भागकर राजा भी अपनी रक्षा कर सकता है ।
सेना ऐसी होनी चाहिए, जिसमें वंशानुगत, स्थायी एवं वश में रहने वाले सैनिक भी हों, जनके स्वी पुत्र राजवृत्ति को पाकर पूरी तरह सन्तुष्ट हो, युद्ध के समय जिसको आवश्यक सामग्री