Book Title: Jain Rajnaitik Chintan Dhara
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Arunkumar Shastri

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Page 16
________________ 6 छिपाने में चतुर, अपने राज्य के प्रवेशद्वारों को गुप्त रखने वाला, आन्वीक्षिकी, दण्ड नोति एवं वार्ता विद्या में प्रवीण होना चाहिए। वह ज्ञानी, वंश परम्परा से चले आने वाले, धैर्यवान् एवं पवित्र पुरुषों कोना उनके कार्यों का विचार करे फिर ब्राह्मण से परामर्श करे और स्वयं कर्त्तव्य का निश्चय करे* राजा रमणीक, पशुओं की वृद्धि के योग्य जीवन निर्वाह में सहायता देने वाले एवं वनप्राय देश में निवास करे। उस स्थान पर परिजनों, कोश एवं अपनी रक्षा के लिए दुर्ग बनवाये । वह तत्तत् (धर्म, अर्थ, काम आदि) कर्मों में, आय कर्म और व्यय कर्म में योग्य, कार्यकुशल, पवित्र एवं कर्त्तव्यनिष्ठ अध्यक्षों को नियुक्त करें" । राजा को मैं तुम्हारा ही हैं. ऐसा कहने वाले, नपुंसक, शस्त्रहीन, दूसरे के साथ युद्ध में संलग्न (युद्ध से) निवृत्त और युद्ध देखने के लिए आए हुए व्यक्तियों को नहीं मारना चाहिए। वह (पुर और अपनी ) रक्षा करके स्वयं आय और व्यय का लेखा देखे, इसके बाद व्यवहार (मुकदमें) देखे तब स्नान करके समय से भोजन करें, तदनन्तर (स्वर्ण आदि लाने के लिए) नियुक्त व्यक्तियों द्वारा लाये गये स्वर्ण को (देखकर) भण्डार में रखे, पश्चात् गुप्तचरों से बात करे और फिर मंत्री के साथ बैठकर दूतों को निर्दिष्ट कार्य करने के लिए भेजे। (अपराह्न में ) इच्छानुसार (अन्तःपुर में) विहार करे अथवा मन्त्रियों के साथ बैठे। पुनः अपनी सेनाओं का निरीक्षण करके सेनापतियों के साथ विचारविमर्श करें। सांयकाल के समय राजा न्योपासना करे गुप्तचरों के रहस्यमय वचनों को सुने । अनन्तरगीत और नृत्य का आनन्द ले, भोजन और स्वाध्याय करके । स्वाध्याय के पश्चात् सोए । सवेरे जागकर अपनी बुद्धि से शास्त्रों का और किए जाने वाले सभी कार्यों का चिन्तन करे, पश्चात गुप्तचरों को आदर के साथ अपने मन्त्रियों आदि के निकट अथवा दूसरे राजाओं के समीप भेजे । राजा को ब्राह्मणों के प्रति क्षमाशील, अनुराग रखने वालों के प्रति सरल, शत्रुओं के प्रति क्रोधी तथा सेवकों एवं प्रजा के प्रति पिता के समान (दयालु एवं हितकारी) होना चाहिए । न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करने पर राजा प्रजाओं के पुण्य का छठवाँ भाग प्राप्त करता है, क्योंकि भूमि आदि सभी प्रकार के दान से प्रजापालन का फल अधिक होता है। राजा लुटेरों, चोरों, बुरा आचरण करने वाले एवं दुस्साहसी डाकुओं आदि से पीड़ित प्रजा की रक्षा करे और कायस्थों से पीड़ित व्यक्तियों की रक्षा करे । राजा द्वारा अरक्षित प्रजा जो कुछ चोरी आदि पाप करती है, उसमें से आधा पाप राणा का हो जाता है, क्योंकि यह रक्षा करने के लिए ही प्रजाओं से कर लेता है। राजकार्य में अधिकार युक्त पदों पर नियुक्त व्यक्तियों का आचरण भली भाँति गुप्तचरों द्वारा जानकर राजा उत्तम चरित्र वालों का सम्मान करे और विपरीत आचरण करने वालों को दण्ड दे। जो घूस लेकर जीविका चलाते हैं, उनका धन छीनकर देश से निकाल देना चाहिए" | राजकार्य का मुख्य आधार मन्त्र (गुप्त परामर्श) है, अतएव मन्त्र को इस प्रकार गुप्त रखना चाहिए कि राजा के कर्मों के फलीभूत होने के पूर्व उसकी जानकारी किसी को न मिल सके । सीमा से सटे हुए राज्य, उसके बाद के राज्य और उसके भी बाद के राज्य पर शासन करने वाले राजा क्रमशः शत्रु, मित्र और उदासीन होते हैं, इन राजमण्डलों पर क्रमश: ध्यान रखना चाहिए और इनके साथ साम आदि उपायों का प्रयोग करना चाहिए। साम, दाम, भेद और दण्ड इनका उचित रूप से प्रयोग करने पर सफलता मिलती है और कोई उपाय न चलने पर दण्ड का आश्रय लिया जाता है। सन्धि विग्रह, यान, उपेक्षामान, आश्रय तथा दुवैधाभाव गुणों का राजा यथोचित अवलम्बन करें। जब शत्रु का राज्य अन्न आदि से भरा हो, शत्रु सेना दुर्बल हो और अपनी सेना के वाहन तथा सैनिक प्रसन्न हों, तब आक्रमण करना चाहिए" । राजा को अपराध, देश, समय, शक्ति, आदि कार्य और धन का पता लगाकर ही दण्डनीय व्यक्तियों को दण्ड देना चाहिए” | (5) राजनीति प्रधान ग्रन्थों में वर्णित राजनीति राजनीति प्रधान ग्रन्थों से तात्पर्य ऐसे ग्रन्थों से है, जिनमें प्रधान रूप से राजनीति का खुलकर विवेचन किया गया है। ऐसे ग्रन्थों की परम्परा

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