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आश्रमों के धर्म का प्रतिभू कहा है । दण्ड ही प्रजा का शासन, रक्षा और अवेक्षण करता है, जब सब लोग सो जाते हैं, उस समय भी दण्ड जागता रहता है अतएव पंडित लोग दण्ड को हो धर्म का मूल कहते हैं राजा यदि दण्ड का भली भांति विचारकर उपयोग करता है तो प्रजा सुखी होती है,अविचारपूर्वक उपयोग से सबका विनाश हो जाता है। दण्डभय से ही लोगन्याय पथ में प्रवृत्त होते हैं, क्योंकि सर्वथा निर्दोष पुरुष संसार में दुर्लभ हैं। सब चराचर जगत् अपने योग्य भाग का उपभोग दण्ड के भय से ही कर पाता है।
राजा की पीढ़ी दर पीढ़ी से राजकर्मचारी, शास्त्रवित्, शूरवीर, युद्धकला में निपुण, सत्कुलीन और परीक्षित सात या आठ मंत्री (सचिव) रखना चाहिए । प्रत्येक मंत्री का अभिप्राय अलग-अलग समझने के बाद मन्त्रियों के साथ राजा सम्मिलित रूप से सलाह करे । पश्चात् विवेचना करके अपना हितकारी सिद्धान्त निर्धारित करे' | बुद्धिमान, कार्यकुशल, न्याय से धन अर्जन करने वाले, एवं सुपरीक्षित अन्य मंत्रियों को भी राजा नियुक्ति करें। जितने मनुष्यों से अच्छी तरह काम चल सके उत्त- आलस्य शून्य, कार्य के उत्साही, अपने-अपने के बाद और विद्वान मनुष्यों को (मंत्री) नियुक्त करे ।
राजा सर्वशास्त्रविशारद, इंगित, आकार एवं चेष्टा को पहचान लेने वाले, शुद्धस्वभाव और अच्छे कुल में उत्पन्न मनुष्यों को दूत बनावे । सर्वजनप्रिय, कार्यदक्ष. देशकाल का ज्ञाता, विशुद्धस्वभाव, सुन्दर शरीर युक्त, भयरहित तथा वाग्मी दुत प्रशंसनीय माना जाता है । कोष और नगर विभाग राजा अपने हाथ में रखे।चतुर्विध सैन्य संचालन कार्य सेनापति के अधीन और सन्धिविग्रह का कार्य दूत के आधीन रखना चाहिए । दूत को शत्रु राजा के कर्तव्य का उसके आधार
और भावभंगी द्वारा समझना चाहिए तथा उसे क्षुब्ध, सुब्ध तथा अपमानित भृत्यवर्ग का अभिप्राय भी जानना चाहिए । जैसे अपने दुर्ग में रहने वाले मृगादि को व्याघ्रादि का भय नहीं रहता, उसी प्रकार अपने किले में बैठे हुए राजा का शत्रु कुछ भी अनिष्ट नहीं कर सकता । प्रत्येक राजा के पास किले का रहना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि दुर्ग के परकोटे पर बैठा हुआ एक योद्धा बाहर के सौ सैनिकों से और सौ योद्धा एक हजार शत्रुपक्षीय सैनिकों से लड़ सकता है। विजय के लिए प्रवृत्त राजा अपने सभी विरोधियों को साम, दाम, दण्ड और भेद इन चार उपायों से वश में करे । यदि सामादि तीन उपायों से वे वश में न आयें तो दण्ड नीति द्वारा धीरे-नोरे उन्हें वश में लाए । साम, दाम, दण्ड, भेद इन चार उपायों में राष्ट्र की अभिवृद्धि के लिए विद्वान लोग साम
और दान को ही प्रशंसा करते हैं । मंत्री के अतिरिक्त और कोई मनुष्य जिस राजा की मंत्रणा का रहस्य नहीं जान पाता वह ससागरा पृथ्वी का अधिपति होता है । होनबल होते हुए भी परिणामस्वरूप वृद्धियुक्त स्थिरमित्र मिलने से राजा की राजशक्ति जिस प्रकार बढ़ती है उतनी बहुमूल्य रत्न और भूमि सम्पत्ति प्राप्त होने पर नहीं बढ़ती' इस प्रकार मनुस्मृति में राजधर्म का विपुल विवेचन है।
याज्ञवलय स्मृति के राजधर्म प्रकरण में राजनीति का विशेष रूप से विवेचन किया गया है । याज्ञवलय स्मृति के समय की प्राचीनतम सीमा बेवर के अनुसार दूसरी शताब्दी ईस्वी और निचली सीमा छठी या सातवीं शताब्दी के बाद का समय माना है। प्रो.कालो के अनुसार याज्ञवलय स्मृति के समय को ईसा पूर्व पहली शताब्दी तथा ईसा के बाद को तीसरी शताब्दी के बीच कहीं रखा जा सकता है ।
याज्ञवल्य स्मृति के अनुसार राजा को महान, उत्साही, अत्यन्त धन देने वाला कृतज्ञ, वृद्धों की सेवा करने वाला, विनीत, सत्वसम्पत्र, कुलीन सत्यवादी, पवित्र, आलस्य रहित, स्मृतिवान्, सद्गुणी दूसरे का दोष न कहने वाला, धार्मिक, व्यसन न करने वाला, बुद्धिमान, वोर, रहस्य को