Book Title: Jain Pathavali Part 03
Author(s): Trilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publisher: Tilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar

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Page 15
________________ - जैन पाठावली) मूल स्वभाव को भूला हुआ है। इसी कारण आत्मा ससार में भटक रहा है और कष्ट पाता है। इसलिए यहाँ मूल स्वभाव का स्मरण करने का विचार है। आत्मा की पहिचान, ज्ञान प्राप्त करने के आठ नियमो का ( जिनका वर्णन आगे किया जायगा) वरावर पालन करने से और चौदह अतिचारो का त्याग करने से होती है। ___दर्शन के अनेक अर्थ है । सामान्य ज्ञान भी दर्शन कहलाता है और श्रद्धा को भी दर्शन कहते है। श्रद्धा को मजबूत बनाने के लिए आठ नियमो का ध्यान रखना पड़ता है और उनका पालन करना पडता है । उनके विषय मे अगर कोई अतिचार लगा हो, कोई भूल हुई हो तो उसे दूर कर देना चाहिए । ऐसा करने से सच्ची श्रद्धा बढती है। चारित्र का अर्थ है, आत्मा में रमण करना, तो का पालन करना, जीवन की कला को समझना और मृत्यु के अवसर पर समभाव धारण करके मत्युको सुधारना। चरित्र मे लगने वाले दोपो से दूर रहना । ऐसा करने से चारित्र-गुण वढता है। साधु के ब्रतो को चारित्र कहते है और श्रावक के व्रत चरित्ताचरित (चारित्र-अचारित्र अर्थात एकदेश चारित्र) कहलाते हैं। तप, कर्मरूपी लकडियो को जलाने की भट्ठी है । तप के २ भेद है-वाह्य तप और आभ्यन्तर तप । दोनो तरह के तपो का ठीक-ठीक पालन करने से और उनमें किसी प्रकार का दोप न लगने देने से तप विकसित होता है।

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