Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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सहस्रपात्। स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठत् दशाङ्गुलम्' (ऋग्वेद १०.४.९०.१) आदि शब्दों में हुआ है, जिसका तात्पर्य है कि वह पुरुष सहन शिरों वाला, सहन नेत्रों वाला, सहस पैरों वाला है, वह भूमि को चारों ओर से घेरकर स्थित है। पुरुष की महिमा में कहा है
पुरुष एवेदं सर्व यद्भूतं यच्च भव्यम् । उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति।।
-ऋग्वेद १०.४.९०.२ अर्थात् जो कुछ विद्यमान है, जो कुछ उत्पन्न हुआ है और जो उत्पन्न होने वाला है तथा जो अमृतत्व का ईश है और अन्न से आविर्भाव को प्राप्त होता है वह पुरुष ही है। इस पुरुषवाद का वर्णन ऐतरेयोपनिषद्, तैत्तिरीयोपनिषद्, श्वेताश्वतरोपनिषद्, प्रश्नोपनिषद आदि उपनिषदों में भी प्राप्त होता है। वहाँ कहीं पुरुष एवं कहीं बह्म शब्द का प्रयोग किया गया है। छान्दोग्योपनिषद् में 'सर्व खल्विदं ब्रह्म" वाक्य में उसे ब्रह्म कहा है। तैत्तिरीयोपनिषद् की ब्रह्मवल्ली, अनुवाक १ में कहा है- “यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति। यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति। द्विजिज्ञास्व। तद् ब्रह्मेति।" जिससे ये प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर जिसके साथ जीते हैं तथा जिसमें मिल जाते हैं,उसे जानो, वह ब्रह्म है।"
___ इस प्रकार यह पुरुषवाद ही ब्रह्मवाद के रूप में वर्णित है। इस पुरुषवाद का ही ईश्वरवाद के रूप में भी विकास हुआ है। पुराण, महाभारत, रामायण एवं मनुस्मृति ग्रन्थ इसके साक्षी है। यह विशेष बात है कि उस जगत्स्रष्टा पुरुषवाद का वर्णन पूर्वपक्ष के रूप में जैन ग्रन्थों में भी हुआ है। मल्लवादी क्षमाश्रमण (५वीं शती) के द्वादशारनयचक्र में उस पुरुष को सर्वात्मक एवं सर्वज्ञ प्रतिपादित करने के साथ उसकी चार अवस्थाएँ बताई गई हैं, यथा- जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तूर्य। इन चार अवस्थाओं का वर्णन माण्डूक्योपनिषद् में भी प्राप्त होता है। वहाँ जगत् के साथ पुरुष का ऐक्य स्वीकार किया गया है। जिनभद्रगणि (६-७वीं शती) ने विशेषावश्यकभाष्य' में एवं अभयदेवसूरि (१०-११वीं शती) ने सन्मतितर्कटीका में पुरुष के स्वरूप को उपस्थापित किया है। अभयदेवसूरि ने पुरुषवाद के अनुसार समस्त लोक की स्थिति, सर्ग और प्रलय का हेतु उस पुरुष को बताया है।
' छान्दोग्योपनिषद्, अध्याय ३, खण्ड १४, मन्त्र १ २ द्वादशारनयचक्र, भाग १, पृ० १७९-१८२ ३ विशेषावश्यकभाष्य एवं मल्लधारी हेमचन्द्र की वृत्ति, गाथा १६४३ । सन्मतितर्कटीका (तत्त्वबोधविधायिनी), पृ० ७१५
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