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ज्ञानानन्द श्रावकाचार । सिद्धता ही है । ऐसी जिनवानीकी स्तुति वा महिमा बरनन कारे। आगे निरग्रन्थ गुरू ताकी महिमा स्तुति करै हैं । सो हे भव्य ! तूं सावधान होयके नीके सुन । कैसे हैं निरग्रन्थ गुरु दयालु है चित्त जाका अरु वीतराग है स्वभाव जाका अर प्रभुत्व शक्ति कर आभूषित हैं । अर हेय ज्ञेय उपादेय ऐसा विचार करि संयुक्त हैं। अरु निर्विकार महिमानै प्राप्ति भये हैं । जैसे राजपुत्र बालक नगन निर्विकार शोभै हैं । अरु सर्व मनुष्य वा स्त्रीकू प्रिय लागै है। मनुष्य वा स्त्री वाका रूपकू देख्या चाहे है । वा स्त्री वाका आलिंगन करै है। परन्तु स्त्रीका परनाम निर्विकार हो रहे है सरागतादिकको नहीं प्राप्त होय है । तैसे ही जिन लिङ्गका धारक महा मुनि वालवत निर्विकार शोभै है । सर्व जनकौ प्रिय लागै है, सर्व स्त्री वा पुरुष मुन्याका रूपनै देख देख तृप्त नाहीं होय है अश्वा वह मुनि निर्ग्रन्थ नाहीं हुवा है। अपना निर्विकारादि गुनाने ही प्रगट किया है। बहुरि कैसे हैं शुद्धोपयोगी मुनि ध्यानारूढ़ हैं । अरु आत्मा स्वभाव विर्षे स्थिति हैं । ध्यान बिना क्षणमात्र गमावै नाहीं, कैसे स्थिति है नासाग्र दृष्टि धर अपनै स्वरूपनै देखे हैं, जैसे गाय बच्छानै देख देख तृप्ति नाहीं होय है। निरंतर गायके हृदय विर्षे बञ्छा वसै है तैसे ही शुद्धोपयोगी मुनि अपना म्वरूपनै छिनमात्र भी विसरै नाहीं है। गौवच्छावत् निज स्वभावसौ वात्सल्य किए हैं । अथवा अनादि कालका अपना स्वरूप गुमिगया है ताकों तेरै हैं । अथवा ध्यानअगनि कर कर्म ईधन • आभ्यंतर गुप्त होमै हैं । अथ्वा नगरादिक नै छोड़ वनके विषै जाय नासाग्र दृष्टिं धर