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'चरणों के अभिषेक का भी बड़ा पुण्य होता है, अज्जी। अभिषेक तो भगवान् के चरणों का ही होता है, मस्तकाभिषेक तो उसकी भूमिका है।'
-कहा सरस्वती ने 'बाहुबली तो इस शिला में पहले से ही विराजमान थे। अपने अभ्यास और अनुभव से मैं उनका दर्शन भी करता था। ऊपर-ऊपर का कुछ अनावश्यक पाषाण काटकर झरा दिया सो आपको भी उनका दर्शन होने लगा। अनावश्यक के विमोचन में वया परिश्रम और उसका कैसा पारिश्रमिक ?'
-निवेदन किया रूपकार ने 'जीवन का ऐसा सुन्दर समापन, और मरण का ऐसा उज्ज्वल आवाहन मैंने प्रथम बार देखा।'
-यह थी आचार्य भद्रबाहु की सल्लेखना 'गोमटेश्वर की महिमा अपरम्पार है। इन्द्रधनुष उनका भामण्डल बन जाता है। मेघमालाएँ उनका अभिषेक करती हैं। उनचासों पवन उनके चरणों में अर्थ्य चढ़ाते हैं। दामिनी उनकी आरती उतारती हैं। प्रतिक्षण नूतन उनके रूप अनन्त हैं। कौन उन्हें समझ पायेगा ? कौन उनके दर्शन से अघायेगा?'
- कहा चन्द्रगिरि पर्वत ने _ 'कुम्भकार के चाक पर चढ़ी हई माटी के समान दीर्घकाल से घमता रहा । नाना रूप धरता रहा। चाह की दाह में बार-बार झुलसता रहा। विषयों के वारिधि में बार-बार डूबता रहा । कर्म के निठुर आघातों से बार-बार खण्डित होता रहा, पर इस भव-भ्रमण का ओर-छोर नहीं मिला। अब मेरा उद्धार कीजिए नाथ।
-पुकारा पण्डिताचार्य ने