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हम तो महेनत करते ही हैं लेकिन देवी-देवताओं, दादा और नीरू माँ इन सब की असंख्य कृपा से अच्छा काम हो रहा है। हमें तो आनंद करना है और दादा के गुणगान गाते रहना है। वह आराधना करते-करते, उनकी भजना-भक्ति करते-करते, उसी रूप बनकर रहेंगे।
दादा की आप्तवाणियाँ और अन्य किताबों में से हमें ज्ञानकला तो बहुत जानने और सीखने को मिलती है लेकिन व्यवहार, परिवार या व्यापार में कभी ऐसा मौका आ जाता है कि निश्चय से हम पाँच आज्ञा पालने का पुरुषार्थ तो करते हैं लेकिन व्यवहार में हम अब क्या निर्णय लें, फाइलों के साथ का व्यवहार ज्यों का त्यों रखना है या कम कर देना है और ज्यों का त्यों रखेंगे तो अंदर उनके लिए कौन सी व्यवहारिक समझ सेट करनी है, उसके लिए हमें इस ग्रंथ में दादा की कई बोधकलाएँ जानने को मिलेंगी। ऐसा हर एक को अनुभव होगा कि व्यवहार की उलझनों को सुलझाने के लिए दादा की अनोखी सूझ का जो भंडार है, वह उन्होंने महात्माओं के लिए खोल दिया है।
हमें तो अब ज्ञानी पुरुष के इस जीवन चारित्र का अध्ययन करके व्यवहार में उन जैसी सूझ-समझ, सतर्कता, जागृति और पुरुषार्थ रहे, ऐसे निश्चय के साथ, 'निश्चय-व्यवहार' की समानता के साथ मोक्ष का पुरुषार्थ कर लेना है, वही अंतर की अभ्यर्थना।
दीपक देसाई
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