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धर्म श्रवण पर
हे भव्यों ! तुम ने किसी प्रकार मनुष्य भव पाया है अतः सकल दुःखनाशक तथा सकल सुखकारक जिन प्रवचन सुनने को तत्पर होओ ।
जओ सुबच्चा जाणइ कल्लाणं सुच्या जाणइ पावगं । उभयंपि जाणइ सुच्चा जं छेयं तं समायरे ॥ ४७ ॥ अहः संहति भूधरे कुलिशति क्रोधानले नीरति, स्फूर्जज्जाड्यतमोभरे मिहिरति श्र योद्र मे मेघति । माद्यन्मोहसमुद्रशोषण विधौ कुभोद्भवत्यन्वह, सम्यग् धर्मविचारसारवचनस्याssकर्णनं देहिनां ॥
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कहा भी है कि:- सुनने से कल्याण जान सकता है -सुनने से पाप जान सकता है, ये दोनों सुनने से जाने पश्चात् जो भला जान पड़े उसे आचरे ।
सम्यग् धर्म के विचार वाले वचन का सुनना प्राणियों के पाप समूह रूप पर्वत को विदारण करने में वत्र समान है, क्रोध रूप अग्नि का शमन करने में पानी समान है, प्रसरित अज्ञान रूप अंधकार को दूर करने में सूर्य समान है, कल्याण रूप झाड़ को सींचने में मेघ समान है, और उछलते मोह रूप समुद्र को शोषण करने में सदैव अगस्ति ऋषि के समान है ।
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वहां धर्म के दो भेद हैं- सर्वथा व देश से । सर्वथा धर्म सो पंच महाव्रत है, और देश से धर्म सो द्वादश व्रत है । यह सुन सेठ संतुष्ट हो जिनेन्द्र के चरण कमलों को नमन कर अपने को कृतकृत्य मानता हुआ घर आया । अब अर्जुनमाली ने वैराग्य पाकर जिनेश्वर के पास छठ व अठम तप करने की प्रतिज्ञा पूर्वक दीक्षा ग्रहण की। वहां वह आक्रोश, ताड़न आदि सहकर छः मास तक व्रत पालन कर व पन्द्रह दिन की संलेखना कर के