Book Title: Dharmratna Prakaran Part 02
Author(s): Shantisuri, Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 15
________________ धर्म श्रवण पर 9 क्योंकि इस पूर्वापर अविरुद्ध, शुद्ध सिद्धांत के तत्त्व का श्रवण आलस्यादि अनेक कारणों से अति दुर्लभ है । आगम में भी कहा है कि - आलस्य, मोह, अवज्ञा, मान, क्रोध, प्रसाइ, लोभ, भय, शोक, अज्ञान, विक्षेप, कुतूहल और रमतगमत इन तेरह कारणों से दुर्लभ मनुष्य भत्र पाकर भी जीव हितकारी और संसार से तारने वाले धर्म का श्रवण नहीं कर सकता । ( जब कि सामान्यतः भी धर्म श्रवण दुर्लभ है ) तो स्वयं जिनेश्वर के मुख से निकलते हुए पैंतीस गुण सहित और संशय रूप रज को हरने में पवन समान वचनों का श्रवण दुर्लभ हो इसमें कहना ही क्या ? तब माता पिता बोले कि हे पुत्र ! यहां अर्जुनमाली महाक्र होकर नित्य प्रति सात हत्याएं करता है । द्ध अतः हे पुत्र ! तू जिन को वन्दन करने तथा धर्म सुनने को मत जा, अन्यथा शीघ्र ही तेरे शरीर की व्यापत्ति होगी । अतः हे वत्स ! तू यहीं से श्रमण भगवान् वीर प्रभु को वन्दन कर और उनकी पूर्व श्रवण की हुई देशना स्मरण कर । तब सुदर्शन बोला कि- जब कि त्रिलोकनाथ यहां पधारे हैं, तब उनको नमन किये बिना तथा धर्म सुने बिना किस प्रकार भोजन करना उचित है ? तथा श्री वीर प्रभु के वचन श्रवणरूप अमृत पान से सिंचित मेरे शरीर को विषय विष के समान मृत्यु क्या कर सकता है ? अतः जो कुछ होना हो सो होओ, यह कह आग्रह पूर्वक माता पिता की आज्ञा लेकर भगवान् को वन्दन करने को निकला । उसको देखकर अर्जुनमाली मुद्रर घुमाता हुआ दौड़ा वह ऐसा दिखने लगा मानो कुपित हुआ काल आता हो । तब निर्भय रह व के छोर द्वारा भूमि प्रर्माजन कर जिनेन्द्र को वन्दन कर व्रत का उच्चारण करने लगा । जगत् के जीवों को शरण करने योग्य अरिहंत, सिद्ध, साधु और केवली - भाषित धर्म मुझे शरण हो ।

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