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प्रवचन-५०
१५ राजा था श्रेणिक। राजा श्रेणिक शिकार करता था। शिकार करने की उसे आदत थी, उसे मज़ा आता था। एक दिन, श्रेणिक जंगल में शिकार करने गया था। उसने दूर से एक हिरनी को देखा। अपना घोड़ा उसने हिरनी के पीछे दौड़ाया, धनुष्य पर बाण चढ़ाया... हिरनी तेजी से भाग रही थी, परन्तु श्रेणिक का अश्व भी तेजी से दौड़ रहा था । श्रेणिक ने तीर छोड़ा। तीर हिरनी के पेट में चुभ गया। हिरनी का पेट फट गया। पेट में से मरा हुआ बच्चा भी बाहर निकल पड़ा। हिरनी भी मर गई...। श्रेणिक घोड़े से उतर कर मृत हिरनी के पास आया, बड़ा खुश हुआ। 'मेरे एक तीर से दो पशु मरे : हिरनी
और उसका बच्चा ।' बहुत हर्ष हुआ। शिकार ऐसे होता है...'एक तीर से दो शिकार ।' बड़ी खुशी मनायी और नरकगति का आयुष्य-कर्म बाँध लिया । बाद में जब श्रेणिक, भगवान महावीर के परिचय में आये तब सर्वज्ञ भगवान ने बताया कि 'श्रेणिक, तुम नरक में जाओगे।' तब श्रेणिक घबराए और भगवान को कहा : 'श्रेणिक, तूने शिकार का पाप करके हर्ष मनाया था, इसलिए नरकगति का आयुष्य बाँध लिया था। वह कर्म निकाचित था... अपरावर्तनीय कर्म तूने बाँध लिया है।'
हर्ष बना न शत्रु? पापप्रवृत्ति करते समय सावधान रहो! अन्यथा दुःखी बन जाओगे। पाप करने से पूर्व हर्ष नहीं होना चाहिए, पाप करते समय हर्ष नहीं होना चाहिए और पाप करने के पश्चात् हर्ष नहीं होना चाहिए। हर्ष कहो, आनन्द कहो, खुशी कहो सब एक ही है। अज्ञान दशा में यह भूल हो ही जाती है, इसलिए सज्ञान और सभान बनो । कर्म कैसे बंधते हैं और कर्मों का उदय कैसा और किस प्रकार आता है इसका ज्ञान प्राप्त करो।
व्यापार में चोरी करते हो न? मिलावट करते हो न? और उसमें जब सफलता मिलती है, कुछ रुपये ज्यादा मिल जाते हैं तब खुशी मनाते हो न? हर्षविभोर बन जाते हो न? जानते हो कि इससे निकाचित पापकर्म बंधते हैं? चोरी से, अन्याय से, अनीति से प्राप्त किया हुआ धन आपके पास रहनेवाला नहीं और पापकर्म आपको दुःखी किये बिना जानेवाले नहीं! रूपसेन की कहानी :
शास्त्रों में एक रूपसेन की कहानी आती है। रूपसेन श्रेष्ठि-पुत्र था । धनवान और रूपवान था । सुन्दर वस्त्र पहनकर घुमने निकलता था। एक दिन राजमहल के सामने खड़ा था। राजमहल के झरोखे में राजकुमारी खड़ी थी।
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