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आलोचनाशुद्धिः
आलोचनाशुद्धिः (स्त्री०) राग-द्वेष रहितभाव करना। 'मायामृष्ठरहितता आलोचनाशुद्धिः । '
आलोचनीय (स०कृ०) आलोचना योग्य (वीरां० १७/२१) (भ० आ० टी० १६६ )
आलोडनं (नपुं० ) [ आ + लुड्+ णिच् + ल्युट्] १. बिलोना, हिलाना, घुमाना। २. क्षुब्ध करना। ३. मिश्रित करना । आलोल (वि०) कांपने वाला, घूमने वाला, हिलने वाला विक्षुब्ध हुआ, लोलुपी।
आवन्त्य (वि०) [ अवन्ति यङ् ] अवन्ती से आने वाला, अवन्ती से सम्बन्ध रखने वाला।
आवन्त्यः (पुं०) अवन्ती का राजा ।
आवद्धकटिः (स्त्री०) हर समय तत्पर (समु० १/१६) आवद्य (वि०) दोष (३/६६)
आवपनं (नपुं० ) [ आ + वप् + ल्युट् ] १. बोना, खेत में रोपना, बिखेरना, डालना, फेंकना, निक्षेपण, बीज बौना। २. हजामत करना। ३. वर्तन पात्र मर्तबान। आवरकं (नपुं०) (आ+वृ+ण्वुल्] ढक्कन, पर्दा । आवरणं (नुपं०) [आवृल्युट्] १. आच्छादन, पर्दा, ढक्कन, बाधा, बाड़, दीवार । (जयो० २६/९७) आव्रियते आच्छाद्यतेऽनेनेत्यावरणम् २. अज्ञानादि दोष भाव, मिथ्यात्व समूह, कर्माच्छादन।
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आवरण कर्त्री (वि०) आवारा, भ्रमणशील (जयो० ३/३९) आवराङ्गपानं (नपुं०) मस्तक पर्यंत । वरागपर्यन्ताङ्गस्वादन अङ्गपान। वराङ्गमूर्धगुह्ययो रित्यमरः । वराङ्ग मस्तके योनी इति विश्वलोचनः।
आवर्जन (नपुं०) १. उपयोग, व्यापार, कर्मस्थिति का व्यापार २. निषेधा
आवर्जित (वि०) शुभ भोगों का व्यापार १. प्रोच्छ, पछा गया, प्रमार्जित । (जयो० १९/१०) २. निषेधित, प्रतिबाधित, निरोधित।
आवर्त (वि०) [आवृत् पञ्] १. भंवर, घेरा, चक्कर, घुमाव २. पर्यालोचन, परिभ्रमण
आवर्तकः (पुं०) [आवर्त कन्] भंवर, जलावर्त, घुमाव,
चक्कर।
आवर्तनं (नपुं०) चक्कर, घुमाव (जयो० २४/२२) आवर्तवती (वि०) चक्करशील, भ्रमणयुक्त, घुमावदार (जयो० १७/६९) आवर्तवत्या (जयो० १७ /६९) आवलिः (स्त्री०) [आ+व+इन्] तति, रेखा, पंक्ति ।
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आवापः
'लोमलाजिच्छलेनैतत्पर्यन्ते शावलावलिः' (जयो० ३/४७) २. असंख्यात समय-आवलि असंख्यातसमयः । आवलित (वि०) [आवल्क्त] घेरि घिरा हुआ, परिधि संयुक्त |
आवश्यकः (पुं०) अवश्य करणीय कार्य, (जयो० १२ / १४४ ) अनिवार्य क्रिया, महाव्रती की क्रिया । 'ण वसो अवसो अवसस्सं कम्ममावासयं ति बोद्धव्वा' (मूला०७/११४) १. महाव्रती के करने योग्य आवश्यक षट्कर्म। २. श्रावक या साधु के उपयोग रक्षक गुण सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वेदना, प्रतिक्रमण और कार्योत्सर्ग (राज० वा०६/२२) 'जयोदय' में मुनि की वृत्ति का नाम आवश्यक है। न वशोऽक्षमनसामित्यवश, अवश एवावश्यकस्तस्य भाव आवश्यकं तेन सहिता सावश्यकस्तस्येन्द्रियजयिनो मुनेः । ' (जयो० वृ० २७ / २३)
आवश्यक करणं (नपुं०) अनिवार्य क्रिया ० साधु या श्रावक की नित्य प्रति करने योग्य क्रिया ।
आवश्यक - कर्म (नपुं०) षडावश्यक कर्म, पूजादिकर्म । (जयो० २२/३५)
आवश्यक निर्युक्तिः (स्त्री०) अखण्डित उपाय की युक्ति । 'जत्ति त्ति उपाय ति य रियवा होदि णिज्जुती (मूला०७/१४) आवश्यक कर्त्तव्यों के प्रतिपादन करने वाले शास्त्र आवश्यकनियुक्ति है। आवश्यकापरिहाणि: (स्त्री०) आवश्यक क्रियाओं का यथा समय पालन आवश्यक क्रियाणां तु यथा कालं प्रवर्तना।' ( त० श्लोक ६ / २४)
आवश्यकीक्रिया (स्त्री०) कारणसापेक्ष जन्य आवश्यक क्रिया । आवसति: (स्त्री०) रजनी, रात्रि विश्राम। आवसथः (पुं० ) [आ+वस्+अथच्] स्थान, निवास, घर, आवास, पड़ाव, घेरा, विश्रामस्थल।
आवसथ्य (वि०) [आवसथ ज्य] गृहस्थी, घर में रहने वाला। आवसित (वि०) [आवसूसोक्त] १ स्थित ठहरा हुआ।
२. समाप्त, निश्चित निर्णीत, निर्धारित
आवह् (अक० ) प्राप्त होना, उत्पन्न होना। (सुद०४/२९) आवह (वि०) [आ वह अच्] उत्पन्न करने वाला, जनक, मार्ग दृष्टा पथप्रदर्शक ।
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आवाप [आ+वप्+घञ्] बीज बौना १ रोपना, डालना, निक्षेपण, फेंकना। २. बर्तन, कोटी। ३. उपयोग जन्य चर्चा।