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उपात्तवती
२१९
उपाय:
उपात्तवती (वि०) उत्कण्ठिता (वीरो० १२/२६) (जयो० ७०
८/४६) उपात्तविधिः (स्त्री०) उपलब्धविधि। 'यत्सूक्तिपूर्वकमुपात्त
विधेयवाद:' (सुद० ४/२५) उपात्तसातः (पु०) सुख सम्पन्न, साता को प्राप्त।
'अनन्तनामानुपात्तसातं' (भक्ति० १९) उपात्ययः (पुं०) [उप+अति इ-अच्] उल्लंघन करना, विचलित
होना, दोष युक्त होना। उपादानं (नपुं०) [उप+आ+दा+ल्युट्] १. प्राप्त करना, लेना,
अभिग्रहण करना, ग्रहण करना। २. भौतिक कारण, बाह्य साधन। ३. न्यूनपद का समाकार। जो स्वयं कार्यरूप परिणत होता है वह उपादान कहलाता है। प्रत्येक कार्य अपने उपादान के द्वारा उपादेय अर्थात् अभिन्न रूप से परिणमनीय होता है। "किलाभिन्नत्वेनऽऽदानंधारणमधिकरणं तदुपानम' 'उप' यह उपसर्ग है जिसका अर्थ अभिन्न रूप में एकमेक रूप में जैसा कि उपयोग शब्द में होता है। उपयोग-ज्ञान-दर्शन-ये आत्मा के साथ एकमेक होकर रहते हैं। 'आदान' का अर्थ धारण करना है। अर्थात्
अधिकरण या आधार एवं अभिन्न रूप से एकमेक होते हुए जो प्राप्त करने वाला हो, वह उपादान होता है। (सम्यः पृ० १४ १५) चेतन-अचेतन पदार्थों की उत्पत्ति अपने अपने उपादान से हाती है, ब्रह्म वादियों का कथन। भो गोमयादाविह वृश्चिकादिच्छिक्ति रायाति विभो अनादि। जनोऽप्युपादान-- विहीनवादी, वह्निं च पश्यन्नरणे प्रमादी। (जयो० २६.९४) हे प्रभो! गोबर आदि अचेतन पदार्थों से बिच्छू आदि चेतन शक्ति की उत्पत्ति होती है, ऐसा जो कहते हैं उनका कहना वह ठीक नहीं है, क्योंकि चेतन शक्ति तो अनादि है, गोबर आदि मात्र से शरीर उत्पन्न होता है। इसी तरह अरणि नामक लकड़ी से अग्नि की उत्पत्ति देखकर जो यह कहता है कि उपादान के बिना भी कार्य की उत्पत्ति होती है, वह प्रमादी है, यथार्थवादी नहीं है, क्योंकि अरणि
आदि लकड़ी रूपादिमान् होने में पुद्गल है। उपादानकारणं (नपुं०) भौतिक कारण, प्रकृतिजन्य साधन। उपादानकारणत्व (वि०) कार्य के साथ तादात्म्य। 'उपादानं
उत्तरस्य कार्यस्य सजातीयं कारणम्' (न्याय० वि०१/१३२) 'अवच्छिन्नकारणताशालित्वं तदिति उपादानकारणत्वम्' (अष्ट सहस्त्री १५/१३५)
उपादानत्व (वि.) कार्य के साथ तादात्म्य, कार्य में समस्त
विशेषताओं का समर्पण। उपादानविहीन (वि०) भौतिक कारणों से रहित, ग्रहण रहित,
उत्पत्ति रहित। उपादिमन्मठ (वि०) १. गृहस्थाश्रम में स्थित, द्वितीयाश्रम में
स्थित। 'पठेद्य-धुपस्थितिरूपादिमन्मठे' (जयो० २/५७) उपादेयः (पुं०) अभिन्न परिणमनीय कारण। (सम्य० १४) उपाधिः (स्त्री०) [उप+आ+धा+कि] १. विशेषता, गुण,
विशेषण, विवेचक। २. प्रयोजन, संयोग, अभिप्राय। ३.
पद, नाम, संज्ञा, उपनाम। उपाधिजन्य (वि०) विशेषता रहित। उपाधि-धारक (वि०) विशेषण/गुण धारण करने वाला। उपाधि-पात्र: (वि०) उपाधि का अधिकारी। गुण का अधिकारी। उपाधि-वचनं (नपुं०) आसक्ति जन्य वचन। उपाध्यायः (पुं०) १. अध्यापक, गुरु। रयणत्तय-संजुत्ता,
जिणकहिय-पयत्थदेसया सूरा। णिक्कंख-भाव-सहिया, उवज्झाया एरिसा होति।। (नि०सा०७४) उपेत्य तस्मादधीयते इत्युपाध्याय:' (त०श्लोक ९/२४) उपाध्याय : अध्यापकः। (जैन०ल० २८०) 'मोक्षार्थं उपेत्याधीयते शास्त्र तस्मादित्युपाध्यायः' (कार्ति९४५७) 'यदध्येति स्वयं चापि
शिष्यानध्यापयेद् गुरु:।' उपानयः (पुं०) उपहार, पारितोषिक. भेंट। (जयो० ९/२१) उपानह (स्त्री०) [उप+न+क्विप्] पादुका, पादरक्षक (जयो०
२१/६४) जूता, पादत्राण, चप्पल। (जयो० ३/१००) उपान्तः (पुं०) १. सिरा, पल्लू का अग्रभाग, गोट, किनारी।
(वीरो० २१/१०१) २. पार्श्वभाग, समीपस्थ स्थान। उपान्तभृत (वि०) रखाने वाली, रक्षा करने वाली। (वीरो०
२१/१०) उपान्तिक (वि०) निकटस्थ, समीपस्थ, पड़ौसी। उपान्त्य (वि०) [उपान्त+ यत्] अन्तिम से पूर्व का। उपान्त्यः (वि०) अक्षि कोर।। उपान्त्यजिनः (पुं०) पार्श्वनाथ, तेवीसवें तीर्थंकर। 'उपान्त्योऽपि
जिनो बाल-ब्रह्मचारी जगन्मत:।' (वीरो० ८/४०) उपाय: (पुं०) [उप+इ+घञ्] १. युक्ति, विचार, उचित चिन्तन,
समीचीन कथन। (सुद० १०१) 'अभीष्टसिद्धे सुतरामुपाय' २. पद्धति, रीति, परम्परा, प्रयत्न, चेष्टा। 'स्याद्यदीदमहमस्मदुपायाद्' (जयो० ४/३१) 'उपायात् प्रयत्नाद् अयाद् भाग्यात् स्यात्।' (जयो० व० ३१) 'नम्येदितीतह न
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