Book Title: Bruhad Sanskrit Hindi Shabda Kosh Part 01
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: New Bharatiya Book Corporation

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Page 373
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गृहिता ३६३ गैरिका गृहिता (वि०) गृहस्थपना। कौमारमेके गृहितां च केऽपि नराश्च | गेष् (सक०) खोजना, ढूंढना, अन्वेषण करना। दारा अनुयान्ति तेऽपि। (सम्य० वृ० २१) गेहं (नपुं०) आवास, निवास, घर, स्थान, आश्रमस्थल, विश्राम गृहिधर्मन् (नपुं०) गृहस्थधर्म। कृत्यं करोतीति कृत्यकृत्, स्थान, कुटीर। 'ममात्मगेहमेतत्ते पवित्रेः पादपांशुभिः। (जयो० कर्त्तव्याचरणशीलो गृही, तस्य धर्मः गहिधर्मः। (जयो० १/१०४) ग्रन्थारम्भमये गेहे कं लोकं हे महेङ्गित। शान्तिर्याति वृ० २/७२) तथाप्येन विवेकस्य कलाऽतति।। (जयो० १/११०) दानमान-विनयैर्यथोचित्, तोषयन्निह सधर्मिसंहितम्। गेहमेकमिह भुक्तिभाजनं पुत्र तत्र धनमेव साधनम्। तच्च कृत्यकृद्विमतिनोऽनुकूलयन् संलभेत् गृहिधर्मतो जयम्।। विश्वजनसौहृदाद् गृहीति त्रिवर्गपरिणामसंग्रही।। (जयो० (जयो० २/७२) २/२१) स्थान-विनाशिदेहं मलमूत्रगेहं वदामि नात्मानमतो गृहीत (भू०क०कृ०) [ग्रह+क्त] पकडा हुआ, प्राप्त, दृष्टिपथगत. मुदेऽहम्।। (सुद० १२१) अधिगत। 'गृहीतमेतन्नभसा गभस्ति' (जयो० १/३३) गेहकीरः (पुं०) गृहशुक। जम्पत्योर्यन्निशि निगदतोश्चाशृणोद् 'करद्वय्या प्रापितौ चक्रकम्बुको येन स गृहीत सुदर्शन गेहकीरः। (जयो० १८/१०१) पाञ्चजन्य इति। (जयो० २४/५) गेहभृत् (पुं०) गृहस्थ। 'भोगेषु भो गेह भदस्ति' (जयो० गृहीतदास (वि०) दासता को प्राप्त। (सम्य० ७०) __ २७/१०) गृहीतमिथात्व (वि०) तत्त्वार्थ गृहीत में अश्रद्धान्। गेहिन् (वि०) गृहस्था (जयो० २/१) 'संहितार्थमनुवच्मि गृहीतमिथ्यादर्शनं (नपुं०) दूसरों के उपदेश से तत्त्वार्थ का गेहिनाम्' (जयो० २/१) गेहिनो हि सतृणाशिनो नराः। अश्रद्धान। (सम्य० १३) (जयो० २/२०) गेहिनो गृहस्था जना स्वहितार्थमेव धर्माचरणे गृहीतसम्यग्दर्शनं (नपुं०) तत्त्वार्थ के प्रति श्रद्धान। सङ्घटिता भवन्ति' (जयो० वृ० २/२०) 'सन्ति गेहिषु च गृहीताङ्गी (स्त्री०) १. गौरी, गिरिजा, पार्वती। २. गौरवर्मा। ३. सञ्जना अहा।' (जयो० २/१२) २. गृहस्थाश्रम। (जयो० अर्धाङ्गिनी। 'गृहीतमङ्गं यस्या सा गौरी, गौरवर्णा, गिरिजा वृ० २/११७) वा।' (जयो० वृ० १५/९२) गेहिधर्मः (पुं०) गृहस्थ कर्त्तव्य। श्रीजिनं तु मनसा सदोन्नयेत्तं गृहीतुं (हे०कृ०) ग्रहण करने के लिए। स्वयं सुखायेव पति | च पर्वणि विशेषतोऽर्चयेत्। गेहिने हि जगतोऽनपायिनी गृहीतुमभिप्रवृता सुरसुन्दरी तु।। (सम्य० ६७) भक्तिरेव खलु मुक्तिदायिनी।। गृहीशिन् (वि०) गृहस्था गेहिनीति (वि०) गृहिणी। (सुद० १०८) (जयो० २/३८) गृहीशितुः-गृहस्थस्य। 'सङ्ग्रहणता गृहीशिनः' (जयो० २/१०७) गेहिभिन्नसंस्कृतिः (स्त्री०) गृहस्थ से पृथक् संस्कार, साधु गृहोद्यानं (नपुं०) उपसाद, उपवन। (वीरो० वृ० ५/३७) चर्या। (मुनि० ३१) यस्मात् गेहिभिन्नसंस्कृतिविधौ नाना गृह्य (वि०) [ग्रह+क्यप्] परतन्त्र, पालतू। त्रुटि /मृषिः' (मुनि० ३१) गेंडुक: (पुं०) [गच्छतीति गः इन्दुरिव, गेन्दु कन्-गेंडुक] | गेहिसदनं (नपुं०) गृहस्थ घर, नो गच्छदेतिभूमिगेहिसदनं गेंद। निष्टोऽप्यनाकाङिक्षतः' निर्गत्यान्यगृहं वृजेदपि पुनः श्री गेन्दुकः (पुं०) कन्दुक, गेंद (दयो०८) (जयो० २५/१०) भ्रामरी मानितः।। (मुनि० १०, २८) गेन्दुकक्रीडा (स्त्री०) गेंद का खेल। प्रस्थितः तन् वर्त्मनि गेहिसानि (नपुं०) गृहस्थमार्ग। 'विशदानि पदानि गेहिसानौ 'गेन्दुकक्रीडानुरक्तं महाबलमवलोकयामास' (दयो० ८३) परमस्थानसमर्हणानिवानौ' (जयो० १२/७३) गेन्दुकवत् (वि०) गेंद की तरह। 'शुभाशुभ-कर्म-काण्डप्रेरित- | गै (सक०) गाना, पाठ करना, उच्चारण करना, वर्णन करना, स्यास्य-जन्तोरेतस्यां संसृतिरङ्गभूमौ गेन्दुकवदुत्पतन-निपतने स्तुति करना, गुणगान करना। भवत एव। (दयो० वृ०८) गैर (वि०) [गिरि+अण] पहाड़ से आया, पर्वत पर उत्पन्न। गेन्दुकेलि (पुं०) कन्दुकक्रीडा। श्री गेन्दुकेलौ विभवन्ति तासो पर्वतागत। नितम्बिनीनां पदयोर्विलासा। (वीरो० ९/३८) गैरिकः (पुं०) १. गैरुक, रक्तरेणु। (जयो०१५) २. पर्वत पर गेय (वि०) [गै+यत्] गायक, गाने वाला। ० उत्पक। गेयं (नपुं०) गान, गीत, लय। गैरिका (स्त्री०) रक्तमृत्तिका। (जयो० २४/४१) 1 For Private and Personal Use Only

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