Book Title: Bruhad Sanskrit Hindi Shabda Kosh Part 01
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: New Bharatiya Book Corporation
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जितक्रोध
४१५
जिनसेनः
जितक्रोध (वि०) क्रोध को जीतने वाला।
जिनदिनकरः (पुं०) जिनदेव सूर्य। (जयो० १०/९५) जितक्रोध (वि०) क्रोध पर विजय प्राप्त करने वाला। जिनदीक्षा (स्त्री०) अर्हत् दीक्ष, आर्हती प्रव्रज्या। (सम० २/३०) जितगतिः (वि०) गति को जीतने वाला।
जिनदेवराजः (पुं०) जिनप्रभु। (वीरो० १२/३९) जितजरा (वि०) वृद्धावस्था को जीतने वाला।
जिनदेवविभुः (पुं०) जिनेन्द्र भगवान। (जयो० १२/१४७) जिततृष्णा (वि०) प्यास पर विजय प्राप्त करने वाला। जिनधर्मः (पुं०) जिनेन्द्र प्रभु द्वारा कथित धर्म। (सुद० ३/१२) जितदम्भ (वि०) अहकार रहित।
जिनधामः (नपुं०) जिनालय। जितपाप (वि०) पापक्षय करने वाला।
जिनधर्मधृक (वि०) जिनधर्म को धारण करने वाले। (वीरो० जितमोह (वि०) मोहजयी।
१५/४४) जितश्रम (वि०) उद्यमशील।
जिनभक्ति (स्त्री०) जिनार्चन। (जयो० ९/५३) (वीरो० ७/१२) जिताक्ष (वि०) जितेन्द्रिय, इन्द्रियजयी। 'जिताक्षाणामहो धैर्यम्' जिनभास्करः (पुं०) जिनदेव रूप सूर्य। (सुद० ५/१) (सुद० १२४)
जिनपादाब्जसेवा (स्त्री०) जिन चरणों से भक्ति। (वीरो० जितेन्द्रिय (वि०) इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने वाला। १५/५०) अक्षमाक्ष (जयो० १/१०८) (क्षुद० १०८)
जिनपः (पुं०) जिनदेव, अरहंत (वयो० १/२) जितेन्द्रियत्व (वि०) इन्द्रिय जयी। ततो जितेन्द्रियत्वेन जिनपति (पुं०) जिनप्रभुः। (वीरो० १४/५३) पापवृत्तिपरान्मुखः। (सुद० १२८)
जिनपथं (नपुं०) जिनमार्ग, जिनेन्द्र भगवान् का मार्ग रत्नत्रय जितिः (स्त्री०) [जि+क्तिन्] विजय, दिग्विजय।
मार्ग, मोक्षमार्ग। जितुभः (पुं०) मिथुन राशि।
जिनपादः (पुं०) शिवचरण। (सुद० १३/४७) जित्वर (वि०) जीतने वाला, विजयी, विजेता, जयनशील। जिनपूजा (स्त्री०) जिनार्चन। (सुद० ११४)
मुक्त्वा क्षमामिदानीं तु जय जयसि जित्वर। (जयो०७/३५) जिनपुंगवः (पुं०) जिनेन्द्र देव। (जयो० ५/६३) (भक्ति० जिन (वि०) [जि+नक्] विजयी, विजेता, इन्द्रियजयी, राग-द्वेष ३/३६)
रहित। (सम्य० ७२) 'रागादिजेतारो जिना:' जि जये अस्य जिनप्रतिमा (स्त्री०) जिनमूर्ति, अर्हत् प्रतिमा। औणादिक नक प्रत्ययान्तस्य जिन इति भवति, जिनप्रभुः (पुं०) जिनदेव। (वीरो० ७/३२) रागादिजयाज्जिन इति'।
जिनप्रभुः (पुं०) अर्हत्, भगवान्। जिनः (पुं०) जिनदेव, अर्हत् देव, अरहंत, तीर्थकर। (जयो० जिनबिम्बं (नपुं०) जिनप्रतिमा।
वृ० १/१) 'चतुर्थभूमौ भजतो जिनं च'। (सम्य० १००) जिनमन्दिरं (नपुं०) जिनालय। (सुद० ११४) जिनेन्द्र प्रभु का जिनकल्पः (पुं०) उत्तम संहनन युक्त।
स्थान। जिनकल्पिक (वि०) उत्तम संहनन वाला, जित राग-द्वेष जिनमहालयः (पुं०) विशाल मन्दिर। (जयो० १९/४)
'मोहा उपसर्ग-परीषहारिवेगसहाः जिना एव विहरन्ति इति | जिनमुद्रा (स्त्री०) पद्मासन युक्त जिन प्रतिमा की तरह एक जिनालय (भ०आन्टी० वृ० ३५६)
आसन। दृढ़संयम मुद्रा, ज्ञानमुद्रा। जितेन्द्रियमुद्रा, क्रोधादि जिनकृपानिधानं (नपुं०) जिनेन्द्र की कृपा दृष्टि का कारण कषाय से रहित आकृति। चत्तारि अंगुलाई पुरओ ऊणाई (सुद० ५/४)
जत्थ पच्छिमओ। पायाणं उस्सग्गो एसा पुण होइ जिणमुद्दा।। जिनगिरा (स्त्री०) जिनवचन। (मुनि० २२
(चैत्यवंदवा० १६) दोनों चरणों के मध्य में आगे चार जिनगृहं (नपुं०)
अंगुल का और पीछे इससे कुछ कम अंतर करके स्थित जिनचैत्यं (नपुं०) अर्हत् तीर्थ।
होते हुए उत्सर्ग करना। जिनतत्त्वं (नपुं०) जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रतिपादिन तत्त्व। जिनवाग्रय (वि०) जिनवचन का प्रभाव वाले। (जयो०८/६७) जिनदेवः (पुं०) जिनेन्द्र भगवान।
जिनशंसित (वि०) जिनदेव के प्रशंसा करने वाले। (सुद०७४) जिन-देव-वाणी (स्त्री०) वीतराग वाणी। (समु० १/५) जिनसेनः (पुं०) जिनसेनाचार्य-आदिपुराण के रचनाकार (जयो० जिनदर्शनं (नपुं०) प्रभु अर्हत् के प्रति श्रद्धा। (सुद०८/९१) वृ० १४२०)
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