Book Title: Bruhad Sanskrit Hindi Shabda Kosh Part 01
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: New Bharatiya Book Corporation
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ज्वालिन्
४२१
ज्ञानकौमुदी
ग्वालिन् (पुं०) शिव। ज्ञः (पुं०) [ज. और ञ् क संयोग से ज्ञ] पण्डित, ज्ञानी
(जयो० २२/२६) जानना, अनुभव करना, ज्ञान, गुणग्रहण वेत्ता। आत्मा-जानोति ज्ञास्यत्यज्ञासीदनेन 'ज्ञ' इति। (वीरो०
१७/३१) नास्यः कोऽपि बभूव दृशि ज्ञस्य (जयो० २२/२६) ज्ञ (वि०) [जा क] जानने योग्य, कार्यज्ञ, वेदज्ञ, ज्ञापक,
शास्त्रज्ञ, वेत्ता, परिचित। ज्ञदेवः (पुं०) विज्ञजन (वीरो० १७/३५) ज्ञपित (वि०) ( ज्ञा+णिच्+क्त] सूचित, व्यक्त, बोधित, ज्ञानयुक्त
किया गया। ज्ञप्तिः (स्त्री०) [ज्ञा णिच्+क्तिन्] बुद्धि, मति, समझ, जानकारी।
(दयो० ११३) ज्ञा (सक०) जानना, सीखना, अनुभव करना, समझना, परीक्षण
करना, व्यक्त करना, सूचित करना, खोजना। (ज्ञात्वाजानकर जयो० वृ० १/२०) पितुत्वा प्रभुः पुनः (वीरो० ८/२७) सच्चिदानन्दमात्मानं ज्ञानी ज्ञात्वाऽङ्गतः पृथक्।
(सुद० ४/११) ज्ञा-जानाति (सम्य० १५) ज्ञात (वि०) [ज्ञा+ क्त] जाना गया, अनुभूत। (जयो० ९)
समझा हुआ, सीखा गया। (वीरो० ११/१३) (वीरो०
१६/७) ज्ञातरहस्यः (पुं०) रहस्य की जानकारी। (वीरो० ११/१३) ज्ञाता (वि०) अभीष्ट संवदक। (जयो० १५/५३) पण्डित,
विद्वान्। (जयो० ३/२०) ज्ञाताकथा (स्त्री०) उदाहरण युक्त कथा, नाम विशेष। ज्ञातिः (पुं०) [ज्ञा+क्तिन्] पैतृक सम्बन्ध, पिता, भाई, बन्धु,
बान्धव। ज्ञातिजन: (पुं०) कुटुम्बीजन, बन्धुजन। (जयो० ६/२७) ज्ञातिभावः (पुं०) सम्बन्ध, आपसी मेल।। ज्ञातिभेदः (पुं०) सम्बन्धियों में भेद, एक-दूसरे में भेद। ज्ञातिविद् (वि०) सम्बन्धियों की जानकारी। ज्ञातेयं (नपुं०) [ज्ञाति+ ढक्] सम्बन्ध। ज्ञातृ (पुं०) [जा+तुच्] १. पण्डित, ज्ञानी, विद्वान्, २. परिचित,
सम्बन्धी 'ब्राह्मणादिषु ज्ञातिषु' (जयो० वृ० १/४८) ३. ज्ञान-'आत्मा ज्ञातृतया ज्ञानम्' सम्यक्त्वं चरितं हि सः।
(सम्य०८४) ज्ञातृकथा (स्त्री०) तीर्थकर, गणधरों की कथा, ज्ञातपुत्र महावीर
की कथा। ज्ञातृताभावः (पुं०) जानने का भाव, ज्ञातभावा 'पञ्चवर्णात्मक
पवर्गज्ञातृताभावश्च' (जयो० वृ० १/४)
ज्ञातृधर्मकथा (स्त्री०) कथोपकथाओं की कथा, छठा अंगागम
ग्रन्था ज्ञानं (नपुं०) [ज्ञा+ ल्युट्] १. चेतना, आत्मा, चैतन्यता, सजीव
(सम्य० वृ० १२२) २. जानना. बोध करना, समझना, ज्ञान यानि जानना, समझना। (सम्य० १२५) प्रज्ञा, बुद्धि, प्रवीणता। ३. विद्या, शिक्षण। ४. सम्यक् ज्ञान-'संशय, विपर्यय और अन्ध्यवसाय से रहित ज्ञान। (तात्वार्थ सूत्र, १/१, वृ०७) * जं जाणदि तं णाणं-जो जानना होता है, वह ज्ञान है। * पदार्थावबोध। * विशेषावबोध, विशेषग्राहि। * सविशेष जानना। * स्वसंवेदन रूप। * भूतार्थ प्रकाशक ज्ञान। * तत्त्वार्थ उपलम्भक, तत्त्वप्रकाशन। * सामान्य-विशेष को ग्रहण करने वाला। * जीव शक्ति। * साकार रूप का जानना। * तत्त्वतो ज्ञायते येन तज्ज्ञानम्। ज्ञायन्ते परिच्छिद्यन्ते। * द्रव्य-पर्यायविषयक बोध। * ज्ञातिर्ज्ञानम्। * शास्त्रवबोध * हेयोपादेय-वस्तुविनश्चय बोध। ज्ञानाद्विना न सद्वाक्यं ज्ञानं नैराश्यमञ्चतः। तस्मान्नमो नमोहाय जगनातिवर्तिने।। (वीरो० २०/२४) यज्ज्ञानमस्त-सकलप्रतिबन्धभावाद् व्याप्नोति विश्वगपि विश्व भवांश्च भावान् (वीरो० २०/२५) * विशिष्ट ग्रहण * स्वार्थ निर्णयात्मक। * विकल्पाभाव रूप बोध।
ज्ञानं (सम्य०८४) ज्ञानस्य (सम्य०४१) ज्ञाने-(सम्य० १२१) ज्ञानकर्मन् (नपुं०) बोधक कर्म। ज्ञानकाण्डं (नपुं०) ज्ञान समूह, आत्मज्ञान, वेदज्ञान, ब्रह्मज्ञान। ज्ञानक्रिया (स्त्री०) जानने का उपक्रम। ज्ञानकुशीलः (पुं०) ज्ञानाराधना विमुख, ज्ञानाचार की आराधना
से रहित। ज्ञानकेन्द्र (नपुं०) ज्ञान का खजाना। ज्ञानकौमुदी (स्त्री०) ज्ञानप्रभा।
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