Book Title: Bruhad Sanskrit Hindi Shabda Kosh Part 01
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: New Bharatiya Book Corporation

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Page 429
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org जीवनरीतिः जीवनरीतिः (स्त्री०) जीने की कला, जीवन की पद्धति। (दयो० १०८) जीवनवृत्ति (स्त्री०) आजीविका, जीवनयात्रा (वीरो० १८/७) जीवनान्तः (पुं०) मृत्यु, मरण, छूटना। जीवनाघातं (नपुं०) विष । जीवनाधारः (पुं०) जीवन का आधार । जीवनावास (पुं०) शरीर, देह जीवनोत्सर्ग: (पु०) प्राणपरित्याग (वीरो० २२ / ३० ) जीवनोपाय (पुं०) जीवन का उपाय, जीविका का साधन । किं जीवनोपायमिहाश्रयामि प्राणाः पुनः सन्तु कुतो बतामो (दयो० वृ० १६) जीवनोपयोगि (स्त्री०) जीवन सम्बन्धी (जयो० वृ० २/११३) जीवन्त (पुं०) १. जीवन, २. औषधी जीवन्धरः (पुं०) राजपुरी नगरी का राजा जेवक, जीबन्धर (गोरो० १५/२४) जीवभेदः (पु० ) जीव के भेद । (वीरो० १९ / २६ ) जीवबन्ध: ( पुं०) जीव का बन्ध जीवबद्ध (वि०) बद्धयुक्त जीव, बधा हुआ जीव। (समु० ८/१३) जीवमङ्गलं (नपुं०) जीव के हित जीवराशि (स्त्री०) जीवसमूह (वीरो० १४/५३) जीवविचय: (पुं०) जीव के उपयोग पर विचार करना । जीवविप्रमुक्त (वि०) जीवन से मुक्त हुआ, जीव रहित, ० अजीवत्व। जीवविषय: (पुं०) जीव की इच्छा। जीवसमासः (पुं०) जीवों का संक्षिप्तिकरण, विविध जातियों का परिजान! 'जीवाः समस्यन्ते एष्विति जीवसमासाः ४१८ ( धव० १ / १३१ ) जीवहिंसा (स्त्री०) जीवों का घात (जयो० ११ / २६ ) जीवाजीव (पुं०) जीव और पुद्गल । जीवादत्त (वि०) जीव द्वारा नहीं दिया गया। जीवानुभाग: (पुं०) समस्त द्रव्यों की शक्ति । जीविका (स्त्री० ) [ जीव्+अकन् अत-इत्वम् ] जीने का साधन, आजीविका, वृत्ति, रोजगार। (जयो० २ / ११२) जीवित ( वि० ) [ जीव+क्त] जीता हुआ। प्राणानां धारणं, भवधारण । जीवन युक्त होता हुआ, विद्यमान, सजीवता को प्राप्त स्वजीवन युक्त (जयो० १/२२) जीवितकालः (पुं०) जीवन की सीमा । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज़ जीवितज्ञा ( स्त्री०) धमनी । जीवित व्यय (पुं०) प्राण परित्याग जीवित संशय: (पुं०) प्राण संकट | जीविताशया ( स्त्री०) जीने की कामना । जीवितेच्छा (स्त्री०) जीवन की इच्छा। जीवतेश्वर (पुं०) जीवन का वाळा (जयो० वृ० ६/३) जीविन् (वि०) विद्यमान सजीवता जीवोद्धारः (पुं०) जीवों का उद्धार । (दयो० ३४) जीव कल्याण, प्राणीहित । जीव्या (स्त्री०) [जीव्यत्+टाप्] आजीविका का साधन जुगुप्सनं (नपुं० ) [ गुप्• सन् ल्युट् निन्दा, अभिरुचि, घृणा, ग्लानि । कुत्साप्रकार, व्यलीककरण। जुगुप्सा ( स्त्री०) देखो ऊपर। जुगुप्सेऽहं यतस्तत्किं जुगुप्स्यं विश्वमस्त्यदः । शरीरमेव तादृशं हन्त यत्रानुरज्यते । (वीरो० १०/९) जुष् ( अक० ) १. प्रसन्न होना, संतुष्ट होना, २. अनूकूल होना, चाहना, ३. अनुरक्त होना, ४. अभ्यास करना ५. आश्रय लेना । For Private and Personal Use Only जुष् (वि०) प्रसन्न होने वाला, संतुष्ट होने वाला, खुश। जुष्ट (भू०क० कृ० ) [ जुष् + क्त] १. प्रसन्न हुआ, हर्षित हुआ, आश्रित, सम्पन्न, युक्त । २. सेवित- 'यदृच्छायन्त: करणं हि जुष्टम्' (सम्य० ७०/ जुष्टिः (स्त्री०) उपलब्धि। 'हर्षयुक्त प्राप्ति', प्रीतिपूर्वकोपलब्धि । (जयो० १६/४६) जुहुः (स्त्री०) काष्ठ चम्मच। जुहोति ( स्त्री० ) [ जु+शितप्] अनुष्ठानों से युक्त । जू : (स्त्री० ) [ जू+क्विप्] १. चाल, २. पर्यावरण, ३. सरस्वती । जूकः (पुं०) तुला राशि । जूट : (पुं० ) [ जुट्+अच्] १. जूड़ा, केश समूह जुड़ा। २. समूह, ढेर । (वीरो० २/१८) जूटकं (नपुं०) जटा । जूत (वि०) जुते हुए । 'त्यमूपु वाजितं देवजूतम्' (दयो० २८ ) जूति (स्त्री०) चाल, वेग, गति। जूर ( सक०) चोट पहुंचाना, मारना, क्रोधित होना । जूर्ति: (स्त्री० ) [ ज्वर् + क्तिन्] १. ज्वर, बुखार। (सुद० १०२ ) २. शक्ति (जयो० २७/४०) ३. संहार-समस्ति शाकैरपि यस्य पूर्तिर्दग्धोदरार्थे कथमस्तु जूर्ति (दयो० प१० ३८ ) जू (सक०) नम्र बनाना, नीचा दिखाना, आगे बढ़ जाना।

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