Book Title: Bruhad Sanskrit Hindi Shabda Kosh Part 01
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: New Bharatiya Book Corporation

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Page 395
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चातुर्मासिक ३८५ चाम्पेय रुचिः अर्हन्तों के मन के समान निर्मल हो जाती है। यद्यपि एव लता सेव धनुर्यष्टिरिव' चपल एव चापलस्तस्य चातुर्मास श्रावण कृष्ण प्रतिपदा से कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा भावश्चापलता चाञ्चल्यं तदिव भूत्वा (जयो० वृ० १२/९३) तक होता है, इसलिए यहां सावन कृष्ण पञ्चमी से , २. वक्रता, तिरछापन वांकापन (सुद० १/४२) चापलतेव कार्तिक की अमावस्या तक सर्वथा आवागमन निषेध के च सुवंशजाता गुणयुक्ताऽपि वक्रिमख्याता। (सुद० १/४२) लिए जानना। चापल्ली (स्त्री०) धनुष लता। 'कौटिल्यमेतत्खलु चापवल्ल्याम्' चातुर्मासिक (वि० ) वर्षावास सम्बन्धी। (सुद० १/३४) चातुर्य (वि०) १. वाक्कौशल, कुशलता, दक्षता, प्रवीणता, चापविद्या (स्त्री०) धनुर्विद्या, धनुर्वेदित। 'सा चापविद्या बुद्धिमत्ता। (जयो० १६/४३) २. वैदग्ध-(जयो० वृ० नृपनायकस्य' (वीरो० ३/८) ११/४०) 'यत्परप्रीत्या स्वकार्यसाधनम्' दूसरे को प्रसन्न चापल्य (वि०) चंचलता, अस्थिरता, अडियलपन, लोल्य। करके जो अपना कार्य सिद्ध किया जाता है। ३. लावण्य, (जयो० वृ० २३/२८) सौन्दर्य, रमणीयता। चापल्यचारु (वि०) सहजचंचल। चपलायां चारुस्तं सहजचंचलं चातुर्यपरम्परा (स्त्री०) चातुर्याम पद्धति -पार्श्वनाथ की (जयो० वृ० १७/४३) शिक्षा पद्धति। (वीरो० ११/४४) चापार्थ (वि०) धनुष् काण्डार्थ। (जयो० ५/८४) चातुर्यामः (पुं०) पार्श्वनाथ कालीन मत। चापि (अव्य०) और भी, वैसे भी, तथापि, फिर भी, तो भी चातुर्वर्ण्य (नपुं०) [चतुर्वर्ण+ष्यञ्] चार वर्ण वाला धर्म। (जयो० १/१२) फिर भी। (सुद० ९५) चातुर्विध्यं (नपुं०) चार प्रकार, सामूहिक रूप। चामरः (पुं०) [चमर्याः विकारः तत्पुच्छनिर्मितत्वात्] चंवर चात्वाल: (पुं०) [चत्+वालच] १. दर्भ, कुश। २. हवनकुण्ड। (वीरो० २१/१८) राजा के उभय ओर पंखे की तरह चान्दनिक (वि०) [चन्दन ठक्] चन्दन से निर्मित. सुगन्धि हिलाए जाने वाले चमर। पतन् पार्वे मुहुर्यस्य चामराणां द्रव्य जिसमें चन्दन का समावेश हो। चयो बभौ। (जयो० ३/१०३) चान्दीचय (वि०) चन्द्रिका का छिटकना। (वीरो०४/८) चामरग्रहाः (पुं०) चमर युक्त। चान्द (वि०) [चन्द्र + अण्ड्] चन्द्रमा चामरग्राहिन् (वि०) चमर डुलाने वाली सेविका। चादकः (पुं०) अदरक, सोंठ। चामरग्रहिणी (स्त्री०) चमर डुलाने वाली सेविका। चान्द्रमस् (पुं०) चन्द्रमा, शशि, निशाकर, सुधाकर। चामरचारः (पुं०) चमर डुलना, चमर का संचार। चान्द्रमासः (पुं०) चन्द्रमा की तिथि के अनुसार गिना जाने चपरीबालगुच्छानां चारः प्रचारो बभो। (जयो० वृ० ५/६६) वाला माह। चन्द्र के संचार से उत्पन्न होने के कारण | चामरपुष्पः (पुं०) पूगनाग तरु, सुपारी का वृक्षा चन्द्रमास कहलाता है। चामर पुष्पकः (पुं०) १. सुपारी का पेड़। २. केतकी लता, चान्द्रायणं (नपुं०) प्रायश्चित्तात्मक तपश्चर्या। ३. आम्रवृक्षा चान्द्रायणिक (वि०) [चान्द्रायण+ठञ्] चान्द्रायण व्रत पालक। | चामरिन् (पुं०) [चामर इनि] अश्व, घोड़ा। चान्दीकला (स्त्री०) चन्द्रकला, चन्द्रमा की मनोहर कला। चामलसम्पदः (पुं०) चामर शोभा (जयो० २६/१६) चान्द्रीं कलां दृष्ट्वा स्त्रियः पुरुषैः संगन्तुमातुरा बभूव।' चामीकर (नपुं०) [चमीकर+अण] धतूरे का पौधा, स्वर्ण, (जयो० १६/८४) सोना। चामीकर चारुरुचिः सिंहासनवद्वरिष्ठः सः। चापं (नपुं०) [चप्+अण्] १. धनुष (जयो० २/१५) 'युद्धस्थले चामुण्डराजः (पुं०) राजा, नृप (वीरो० १५/४८) (वीरो० चापगुण प्रणीतिर्येषां' (वीरो० २/४१) २. वृत्त की रेखा, ४/५२) ३. धनुराशि। चामुण्डा (स्त्री०) दुर्गा रूप। चापलं (नपु०) [चपल अण] चंचलता, अस्थिरता, चाम्पेयः (पुं०) स्वर्ण, सोना। (जयो० १४/२४) १. विचारशून्यता, यदपि चाप लापं ललाम ते-(जयो०३/१२) चाम्पेयश्चम्पके नागकेशरे पुष्पकेशरे स्वर्णे क्लीव इति २. तुगति, ३, अश्व का अडियलपन। विश्वलोचनः। (जयो० वृ० १४/२४) चापलता (स्त्री०) १. धनुप लता, धनुर्लता (सुद० ७६) 'चाप | चाम्पेय रुचिः (स्त्री०) १. स्वर्ण प्रभा, स्वर्ण कान्ति। चाम्पेयस्य For Private and Personal Use Only

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