Book Title: Bruhad Sanskrit Hindi Shabda Kosh Part 01
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: New Bharatiya Book Corporation
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
किमिच्छदानं
२९२
किलाकं
किमिच्छदान (नपुं०) इष्ट दान क्या है? (सुद० २/१५) किरातः (पुं०) [किरं पर्यन्तभूमिम अतति गच्छतीति किरातः] किमिदानी (अव्य०) इस समय और क्या? 'किमिदानी न । चिलात. पर्वतीय जाति के लोग, भील या आदिवासी। दानिन् रस यामि।' (सुद० ७३)
किराती (स्त्री०) चिलाती, भीलनी। किमिह (अव्य०) और तो क्या? 'किमिह पुनर्न बभूव विषादी' किरिः (पुं०) [कृ-इ] सूकर, ग्रामसूकर , किरिश्व समस्तु (सुद० ११२)
हरिय॑स्य (जयो० २३/४९) २. मेघ, बादल उवराह। किमु ( अव्य०) क्या? कभी। किमु बोजव्यभिचारि-अङ्करः किरीटः (पुं०) मुकुट, शिरोपधान। (जयो० १७/६६)
(सुद० ३/८) क्षौद्र किलाक्षुद्रमना मनुष्य: किमु सञ्चरेत्। किरीदाच्छादनं (नपुं०) शिरोपधान, मुकुटधारक। (जयो०
(सुद० १३०) किमु मस्तकेन चरणं (जयो० २/११५) १७/६६) किमु न (अव्य०) क्यों नहीं। (सुद० ९२)
किरीटिन् (वि०) [किरीट+इनि] मुकुटधारी। किमुत (अव्य०) इधर क्या। (सुद०८१) क्यों नहीं। (वीरो० किर्मीर (वि०) [कृ+ईरन्] चितकवरा, रंग-बिरंगा। १/१०)
क्रियमाण (वि०) किया जाने वाला। (जयो० १/११) किन्न (अव्य०) जैसे कि (सुद० ७८)
किल (अव्य०) निश्चय या निर्धारण सम्बन्धी अव्यय। निश्चय किन्नहि (अव्य०) क्यों नहीं। (सुद०८१)
ही। (जयो० १/७) वीरो०१/५। अवश्यकिन्तरः (पु०) किन्नर नामक देव, गन्धर्वि। किन्नरनाम
अतएव-(सुद० ९९) कर्मोद्यात् किन्नरा। (त० वा० ४११) नहि किन्नर एष अपूर्व-पूर्णाऽऽशास्तु किलाऽपरिघूर्णा (सुद० ९९) विन्नरो (जयो० १०/७९)
अत्यन्त-एकाकिनं यथाजाते किलाऽऽनन्देन मण्डिता। (सुद० किन्नरी (स्त्री०) १. देवांङ्गना. गन्धर्वणी। (दयो० १०९) ९७)
कुत्सितनरी किन्नर (जयो० ११/१३) २. नीच जैसा कि 'भोगानात्मनाऽनुभवितुं किल रोगान्, (समु०५/३) स्त्री-अतिमार्दवतो नभश्चरी स्ववभातीव गुणेन किन्नरी। एवं, प्रकार-किलेत्येव प्रकारा परिस्थितिः (वीरो० २/४१) (समु० २०८)
वास्तव में-'किलार्य खण्डोत्तम नामधेयम्' (सुद० १/१४) किन्नु (अव्य०) क्यों नहीं, क्या नहीं। सागसोऽप्याङ्गिनो रक्षेच्छक्त्या ऐसा, इस प्रकार का-शयनीयोऽसि किलेति शापित (सुद० किन्नु निरागसः। (सुद० ४/४१!
३/२२) किन्मुचित् ( अव्य०) क्या कभी नहीं। (जयो० २/६५)
किन्तु-तकाञ्छतत्वेन किलारि नार्यः (जया० १/२६) किन्नेति (अव्य०) क्यों नहीं क्या नहीं। 'किन्नेति चेतसि स क्योंकि (जयो० १/२३) भद्रतया विचार्य। (सुद० ४/२४)
यद्यपि-'प्रवादस्य किल प्रपूर्ति (सुद० १/३५) कियंत् (वि०) कितना बड़ा, कितना बृहद, किन गुणों का. परन्तु-किलानकोऽप्येष पुन: प्रवीण:। (सुद० २/२) 'तक किस गिनती का।
पर्यन्त-दीर्थोऽहिनीलः किल केशपाशः। (सुद० २.८) घृणा, कियद्विधा (वि०) कतिपय प्रकारा, कितने प्रकार का। (जयो० कारण, हेतु, आशा, संभावना आदि में भी किल का २३.३०)
प्रयोग होता है। किरः (पुं०) [कृतक] सूकर।
किलः (पुं०) [किल+क] क्रीड, क्रीडा, खेल। किरकः (पुं०) [कृ+ण्वुल] १. लिपिक, लेखाकार, २. सूकर। किलकिंचितं (नपुं०) उत्तेजना, प्रेम-मिलन पर हास-परिहास। किरणः (पुं०) प्रभा. चमक, कान्ति, चन्द्र, सूर्य, प्रकाश। किल-किलः (पुं०) हर्ष, आनन्द, किलकारी, गुंजन, गुंज। (जयो० १,१०५)
किलकिलाटः (पुं०) छोंक। किलकिलाटवदङ्गगतं न तु किमु किरणक्षेपक (वि०) करकृत, प्रकाश करने वाला। (जयो० न पश्यसि गोरस-सारिक। (जयो० २४/१३७) वृ० १८.९४)
किलकिलायते-किलकारी करना, हर्षित करना। किरणमय (वि०) प्रकाश युक्त।
किलाकं (अव्य०) निश्चय ही, वास्तव में। भाग्येन तेनास्तु किरणमालिन् (पुं०) सूर्य, दिवाकर।
समागमोऽपि साकं किलाकं यदि नोऽथलोपि। (सुद० किरणसंसर्गः (पुं०) प्रभावलम्बन। (जयो० १/१०५)
२/२२)
For Private and Personal Use Only
Page Navigation
1 ... 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438