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क्षालयामास
३२९
क्षीण
क्षालयामास धोने या पोंछने स्वच्छ किया। 'वारा वस्त्राणि क्षायोपशमिकः (पुं०) कर्मों के क्षय और उपशम से उत्पन्न।
लोकानां क्षालयामास या पुरा। (सुद० ४/३६) 'स्वान्तं हि 'कर्मण्णां क्षयादुपशमाच्चोत्पन्नो गुणः क्षायोशमिक:' (धव० क्षालयामास' (समु० ९/१७) क्षालयितुं-प्रक्षालन करने के १/१६१)
लिए। 'वक्त्रं तथा क्षालयितुं जलं च' (वीरो० ५/९) । क्षारतंत्रं (नपुं०) क्षारद्रव्य घावों को शुद्ध करने वाली पद्धति, क्षालित (वि०) [क्षक्+णि+क्त] स्वच्छ किया हुआ, प्रक्षालित, एक चिकित्सा पद्धति।
प्रमार्जित। 'रणरेण्वा धूसरितं क्षालितमरिदारदृगजलौघेन। क्षिण (सक०) छीलना। 'काष्ठं यदादाय सदा क्षिणोति' (जयो० (जयो० ६/३८) क्षालितं धौतं (जयो० वृ० ६/३८)
२६/९०) क्षायिक (वि०) कर्मों में अभाव से उत्पन्न होने वाला। क्षितिः (स्त्री०) पृथ्वी, घर, स्थान। (त०सू०२/१) 'क्षयः कर्मणोऽत्यन्तविनाशः।
क्षितिभृत (वि०) पृथ्वी धारक, पृथ्वी पालक नृप। (जयो० क्षायिक-अनंत-उपभोगः (पुं०) कर्म के क्षय से विभूतियों ९/३४, ९/३५) की प्राप्ति।
क्षिप् (सक०) १. फेंकना, छोड़ना, डालना, २. भेजना, ३. क्षायिक-अनन्तभोगः (पुं०) भोगान्तराय के विनाश होने पर दृष्टि डालना, देखना। आक्षिपत् (जयो० ७/३) क्षिपन्
अनन्त भोग सामग्री की प्राप्ति। 'कृत्स्न-भोगान्तरायतिरो इतस्ततोऽवलोकयन्। ४. दत्तं सूतिकया शवं च कमपि भावात् परमप्रकृष्टो भोगः। (त० वा० २/४)
क्षिप्त्वाऽऽगतेनाऽथवा। (मुनि० ११) ५. व्यतीत क्षायिक-उपभोगः (पुं०) उपभोगान्तराय के शान्त होने पर करना-क्षिपेत् कालं चार्तवमेत्य गेहिसदनं तत्र क्षिपेदार्यिका। __ यथेष्ट उपभोग के साधन उत्पन्न होना।
(मुनि० २८) क्षायिकचारित्रं (नपुं०) चारित्र मोहनीय के क्षय से उत्पन्न होने क्षिपणं (नपुं०) [क्षिप्+क्यून्] झिड़कना, फेंकना।
वाले चारित्र, यथाख्यातचारित्र। 'षोडश-कषाय- क्षिपणिः (स्त्री०) १. चम्पू। २. जाल।
नव-नोकषायक्षयात् क्षायिकं चारित्रम्' (त०वृ०२/४) क्षिपण्युः (नपुं०) शरीर।। क्षायिकज्ञानं (नपुं०) ज्ञानावरण के क्षय से उत्पन्न होने वाला क्षिपा (स्त्री०) १. रात्रि, २. भेजना।
ज्ञान केवलज्ञान। 'ज्ञानावरणक्षयात् क्षायिकज्ञानं केवलम्' | क्षिप्त (भू०क०कृ०) [क्षिप+क्त] फेंका हुआ, डाला हुआ। (तश्लोक २/४)
'क्षिप्तोऽपि पङ्के न रुचि जहाति' (सुद० १२०) 'क्षिप्ताऽसि क्षायिकदानं (नपुं०) दान देने में बाधा का अभाव।
विक्षिप्त इवाधुना तु' (सुद० ३/४०) क्षायिकभावः (पुं०) कर्मस्कन्धों के विनाश से जो आत्मपरिणाम | क्षिप्त-कुक्करः (पुं०) पागल कुत्ता।
होता है, वह भाव क्षायिकभाव है, 'क्षयः प्रयोजनं यस्य क्षिप्तचित्त (वि०) उदास मन, विक्षिप्त मन।
भावस्य स क्षायिकः, क्षायिकस्य भावो क्षायिक भावः।। क्षिप्तदेह (वि.) आराम युक्त शरीर। क्षायिकलाभः (पुं०) निर्विघ्नता पूर्वक साधनों की प्राप्ति। क्षिप्यमान (शानच् प्रत्यय) फेंकता हुआ। वह्निः किं शान्तिमायाति क्षायिक-वीर्यः (पुं०) वीर्यान्तराय के क्षय से प्रादुर्भूत शक्ति। क्षिप्यमानेन दारुणा। (सुद० १२६) क्षायिक-सम्यक्त्वं (नपुं०) सात प्रकृतियों के अत्यन्त क्षय से | क्षिप्र (वि०) [क्षिप्र+रक्] आशुगामी।
जो सम्यक्त्व प्रादुर्भूत होता है 'सत्त-पयडिक्खएणुप्पण्ण- | क्षिप्रं (अव्य०) शीघ्र, तुरन्त, जल्दी। सम्मत्तं (धव० १/१९२) शुद्धात्मादिपदार्थविषये विपरीता- क्षिप्रकारिन् (वि०) आशुकारी। भिनिवेश रहितः परिणामः क्षायिकसम्यक्त्वमिति भव्यते।' क्षिया (क्षि+अङ्ग+टाप) विनाश। (परमात्म प्र०६१)
क्षीजनं (नपुं०) सरसराहट, एक ध्वनि विशेष, जो छिद्र युक्त क्षायिकसम्यग्दृष्टि: (स्त्री०) मिथ्यात्व का निराकरण 'निराकृत- | प्रदेशों से निकलती है।
मिथ्यात्वः क्षायिकसम्यग्दृष्टिरित्याख्यायते' (त० वा० ९/४५) क्षीण (वि०) [क्षि+क्त] १. कृश, निर्बल, पतला। २. घटा क्षायिकी (स्त्री०) क्षय को उत्पन्न करने वाला। क्षयः प्रयोजनमस्या हुआ, कम हुआ, समाप्त। ३. सुकुमार, शक्तिहीन। इति क्षायिकी' (अनगारधर्मामृत २/११४)
हलकी-'क्षीणे रागादिसन्ताने' (सम्य० ११५) क्षीण शब्द
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