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कार्मण-काययोगः
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कार्यदर्शनं
पूर्ण करने वाला। २. कर्म रूप शरीर, कर्म के विकार भूत (वीरो० १९/४२) यदि जगत् के प्रत्येक पदार्थों का कोई देह। (सम्य० ३४) 'कर्मणो विकार: कार्मणम्''कर्मणां ईश्वरादि कर्ता-धर्ता होता तो फिर जौ के लिए जौ का कार्यं कार्मणम्' (स०सि०२/३६) 'कर्मति सर्वशरीरप्ररोहण- बौना व्यर्थ हो जाता। क्योंकि वही ईश्वर बिना ही बीज समर्थं कार्मणम्' (त० वा० २/२५) 'कर्मणामिदं कर्मणां के जिस किसी भी प्रकार से जौ को उत्पन्न कर देता। फिर समूह इति वा कार्मणम्' (त० वा० २/३६) जो सब शरीरों विवक्षित कार्य को उत्पन्न करने के लिए उसके की उत्पत्ति का बीजभूत शरीर या कारण है। कर्मों का कारण-कलापों के अन्वेषण की क्या आवश्यकता रहती? कार्य कार्मण शरीर है।
अतएव यही मातना युक्तिसंगत है कि प्रत्येक पदार्थ स्वयं कार्मण-काययोगः (पुं०) कार्मण शरीर के द्वारा कृत योग। प्रभावक भी है और स्वयं प्रभाव्य भी है अर्थात् अपने ही ___ 'कार्मणकायकृतो योगः' (धव० १/२९९)
कारण कलापों से उत्पन्न होता है और अपने कार्य विशेष कार्मण-बन्धनं (नपुं०) गृह्यमाण कर्म परमाणुओं का परस्पर का उत्पन्न करने में कारण भी बन जाता है। जैसे बीज सम्बन्ध।
के लिए वृक्ष कारण है और बीज कार्य है। कार्मण-वर्गणा (स्त्री०) कर्म परमाणुओं की वर्गणा। कार्य-कारण-भाव: (पं०) कार्य कारण भाव। कार्मण-शरीर: (पुं०) कार्मणशरीर की प्राप्ति।
वंशे नष्टे कुतो वंश कार्मिक (वि०) [कर्मन् ठक्] हस्त निर्मित, हाथ से बना वाद्यस्यास्तु समु दुद्भवः। हुआ।
कार्य-कारण भावेन कार्मुक (वि०) [कर्मन्+उक] कार्य करने योग्य, पूर्णत: स्थितिमेति जवंजवः।। (दयो० वृ०४८) कार्य सम्पादन करने वाला।
कार्य-कारिन् (वि०) सार्थकता, (जयो० ४/२३) कार्य (सं०कृ०) [कृ+ ण्यत्] जो किया जाना चाहिए, सम्पन्न सन्निमन्त्रणमिहान्य कृतिभ्यः कार्यकार्यपि तु मन्त्रमणिभ्य।
होना, कार्यान्वित। २. दण्ड, विचार, अनुष्ठान, प्रयोजन, (जयो० ४/२३) उद्देश्य, अभिप्राय, आवश्यकता आदि कार्य हैं। क्षेमप्रश्नानन्तरं | कार्यकारिन् (वि०) 'कर्मान्यदन्यत्र न कार्यकारि, किं वृत्तमोहास्तु ब्रूहि कार्यमित्यादिष्टः प्रोक्तवान् सागरार्थः। (सुद० ३/४५) दृशे किलारिः। इत्थं वचश्चेन्निगदाम्यतोऽहं ज्ञाने मृषात्वाय यः क्रीणति समर्थमितीदं विक्रीणीतेऽवश्यम्। विपणौ सोऽपि न दृष्टिमोहः।। (सम्य० १२०-१२१) सार्थकता, प्रयोजनभूत। महर्घ पश्यन् कार्यमिदं निगमस्य।। (सुद० ९१) 'युद्धादिकार्ये कार्य-कोविदः (पुं०) कर्तव्य ज्ञाता, कार्य का जानकर विज्ञ/ ब्रजतोऽप्यमुष्य' (सम्य० १५) वहावशिष्टं समयं न कार्य विद्वान्। 'कार्ये कर्त्तव्ये कोविदा विद्वांसस्ते' (जयो० २६/३६) मनुष्यतामञ्च कुलस्तु नार्य। (वीरो० १८/३७) 'यस्मिन् कार्य-गौरवं (नपुं०) किसी कार्य की महानता। सत्येव यद्भाव एव विकारे च विकार तत् कार्यम्' कार्यचणं (नपुं०) ०कार्यसाधन, कार्यसम्पादन काम की (सिद्धि०वि०वृ०४८७) जिसके होने पर जो होता है, वह निष्पत्ति, कार्यसाधन में चतुर। 'कार्यवित्तः कार्यचण: कार्य है। कार्य को कारण भी कहते हैं। 'कार्यमितरत् कार्यसाधने प्रसिद्धः' (जयो० ० ९/५९) भवितुमर्हति कार्यम्' (सिद्धि०वि०वृ०४८७)
भूवलयेऽपरः सुमुख कार्यचणः कतमो नरः। (जयो० ९/५९) कार्यकर (वि०) प्रभावकारी, प्रभावशील, गुणयुक्त, कार्य-चिंतक (वि०) सतर्क, सावधान व्यक्ति, चिंतनशील,
उद्देश्यपूर्ण. अभिप्रायजनक। कालं कार्यकरं समर्थयति दूरदर्शी, सजग, जागृत, प्रबन्धक, अधिकारी। यत्सर्वज्ञदेवो गुणी। (मुनि० २९) ०कार्यकारी, कर्मयुक्त कार्यच्युत (वि०) कार्यरहित, कर्त्तव्यविहीन, पदच्युत। कार्य करने के लिए-गोदोहनाम्भोभरणादि- कार्यकरं कार्यता (वि०) कराने वाली। 'जगतस्तु सबाधकार्यतां नितरां' पुनर्गोपवरं स आर्य। (सुद० ४/२२)
(जयो० २६/३६) किमुच्यतामीदृशि एवमार्यता स्ववाञ्छितार्थ कार्यकारणं (नपुं०) कार्य और कारण का सम्बंध। 'कारण विदनार्थकार्यता। (वीरो०९/५)
सद्भावे कार्यसद्भाव विशेषात्' (जयो० वृ० १५/६३) कार्य-तोष (वि०) कार्य के प्रति संतुष्ट रहने वाला। चेत्कोऽपि कर्त्तति पुनर्यवार्थं यवस्य भूयाद्वपनं व्यपार्थम्। कार्यदर्शनं (नपुं०) कर्त्तव्यशोधन, कर्तव्य निरीक्षण, कार्य का प्रभावकोऽन्यस्य भवन् प्रभाव्यस्तेनार्थ इत्येवमतोऽस्तुभाव्य।। परीक्षण।
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