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ऐश्वर्यशाली
२३९
ओतुः
ओ
ऐश्वर्यशाली (वि०) समृद्धियुक्त। (जयो० वृ० १/७१)
पिण्डः अवशेष, अभिन्न: सामान्यमिति पर्यायशब्द:' (धव० ऐषमस् (अव्य०) इस समय में इस वर्ष में, आधुनिक। ३/९) ओघ, वृन्द, समूह, संपात, समुदय, पिण्ड, अवशेष, व्युत्पन्नकाल में।
अभिन्न, सामान्य इत्यादि। श्रुत की अपेक्षा अध्ययन, ऐषमस्तन (वि०) इसी वर्ष से सम्बंधित।
अक्षीण आय और क्षपणा भी अर्थ है। 'दव्वट्ठिय--णयऐष्टिक (वि०) इप्टकार्य से सम्बंधित।
पदुप्पायणो, संगहिदत्थादो' (धव० ४/३२२) ऐहलौकिक (वि०) [इहलोक+ठब] इस संसार से सम्बंध | ओघनिर्देशः (पुं०) मार्गणा स्थान का निरूपण, गुणस्थान रखने वाली, इस लोक में घटित होने वाली।
विवेचन। (जैनेन्द्र सि०१० ४६९) ऐहिक (वि०) सांसारिक, लौकिक। (जयो० २७/४८) द्वौ हि ओघप्ररूपणा (स्त्री०) गुणस्थान के प्रमाण का कथन। धर्मों गृहस्नामैहिक : परमार्थिक:। (हित सं०३)
ओघभव: (पुं०) कर्मों से उत्पन्न। 'ओघभवो णाम अट्ठकम्माणि ऐहिकफल (नपुं०) सांसारिक परिणाम, लौकिक भाव।
अट्ठकम्मणिदजीवपरिणामो वा' (धव० १६/५१२) ऐहिक-व्यवहत (वि०) लौकिक व्यवहार सम्बन्धी। (जयो० ओघमरणं (नपुं०) आयुक्षय पर मृत्यु, सामान्य मरण। २/७६)
ओघसंज्ञा (स्त्री०) अव्यक्त ज्ञानोपयोग रूप संज्ञा। ऐहिकसुखं (नपुं०) सांसारिक सुख। नीतिरैहिकसुखाप्तये ओघालोचना (स्त्री०) पिण्ड की आलोचना। नृणामार्परीतिरुत कर्मणे घृणा। (जयो० २/४)
ओघोद्देशिकः (पुं०) उद्देश से युक्त क्रिया। ऐहिकागम (वि०) इस संसार में आगत। 'स्मृतिरैहिकागमोऽपि ओंकारः (पुं०) [ओम्+कार:] मांगलिक अभिव्यक्ति, द्विजान्' (जयो० वृ० २७/४८)
हर्षातिरेक। नमः स्तुतोऽयमोंकारो विसर्गात स्वरूपतः।
तेनानन्दमयेनापि रूपापभ्रंशवेदिना।। (जयो० २८/२७) ओज (वि०) विषम, असम, संख्या विशेष। जिस राशि में ४
(चार) का भाग देने पर ३ या १ शेष रहता है। समान ओ (पु०) यह संस्कृत वर्णमाला का तेरहवां स्वर है। इसका अंक का अभाव। उच्चारण स्थान ओष्ठ एवं कण्ठ है। अ+उ ।
ओज-आहारः (पुं०) इन्द्रिय पूर्णता। (धव० ३/२४९) ओ (अव्य०) यह सम्बोधनात्मक अव्यय है, इससे हाँ! अच्छा! ओजस् (नपुं०) [उज असुन्] तेज, शक्ति, ०तेजस्
उचित आदि का बोध होता है। किसी के बुलाने, स्मरण शरीर आरोह/ऊँचाई, परिणाह/विस्तार युक्त। ०बल, ०वीर्य,
करने या करुणा प्रकट करने के लिए इसका प्रयोग होता है। ०आभा, ०क्रान्ति, प्रभा। 'रोद्धञ्च योद्धं जय ओजसो भू:' ओ (०) ब्रह्म, परमब्रह्मा
(जयो० ८/४३) ओकः (पुं० ) [उच्क ] १. निवास स्थान, गृह, घर, आश्रय, ओजस्क (व०) तेजस्वी, प्रतापी, शक्तिशाली। (जयो० ६/४५)
शरण, आधार। (जयो० ४/२०. ३/२) २. अञ्जली। ३.. ओजस्किन् (वि०) तेजस्वी, प्रतापी, शाक्तिशाली। (जयो० मछली, मत्स्य। ४. पक्षी-विशेष। 'माधवीप्रकृतिपूर्णमिवौक :'
(जयो०४/३७) इसमें 'ओक' का अर्थ स्थान है। ओजस्वत् (वि०) दृढ़, शक्तिसम्पन, वीर्यवान्, प्रतापी, बलिष्ठी। ओकण: (पुं०) [ओ+ कण अच्] खटमल. एक क्षुद्र जन्तु। ओजस्विन् देखो ऊपर। ओकस् (नपुं०) स्थान, आश्रव, निवास, गृह।
ओजस्विता परिणामः (पुं०) वीर्यपात, बलिष्ठाभाव। (जयो० ओख (अक०) १. सूख जाना, शुष्क होना। २. सुशोभित वृ० ३/१७)
करना, अलंकृत करना। ३. अस्वीकृत करना, रोकना। ओडुः (पुं०) ओड देश। ओघ: (पुं०) । उच् + द्यञ्] १. राशि, समूह, समुदाय। (जयो० ओडूं (नपुं०) जबत्कुसुम, जबापुष्प। * जपा कुसुम।
३/२३) २. समग्र, पूर्ण। ३. परम्परा। ४. धारा, जलप्रवाह। ओत (वि०) [आ+वे.क्त] बुना हुआ, एक दूसरे सिरे से ५. आगमिक अर्थ-अध्ययन, कथन भी हैं मिला हुआ। 'संहिवत्त-वयण-कलावो दव्वट्ठिय-णिबंधणो ओघो णाम' | ओतुः (पुं०) [अव्+तुन्] बिलाव, जंगली बिल्ली, विडाल। (धव०५/२४३) ओघ-ओघं वृंदं समूह: संपातः समुदयः | (जयो० २३/७५) (जयो० ७/१११)
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