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पाठ-5 पउमचरिउ
सन्धि-83
83.2
घत्ता-किन्तु हे रघुपति ! इतना (ही) दोष है कि परमेश्वरी (सब ऐश्वर्य से सम्पन्न) (सीता) घर में नहीं है । आप लोगों के छल से न भटके (गलत निर्णय न करें)। (पाप) समझकर (जानकर) कोई भी परीक्षा करें।
83.3
[1] उसको सुनकर रघुनन्दन ने कहा-(मैं) सीता के सतीत्व को जानता है। [2] जिस प्रकार (वह) हरिवंश में उत्पन्न हुई (है) (उसको) (मैं) जानता हूँ। जिस प्रकार व्रत और गुण से युक्त है (मैं) जानता हूँ। [3] जिस प्रकार (उसकी) जिन-शासन में भक्ति है (उसको) (मैं) जानता हूँ । जिस प्रकार (वह) मेरे लिए सुख की उत्पत्ति को (करती है, उसको) (मैं) जानता हूँ। [4] जो अणुव्रत, गुणव्रत व शिक्षावतों को धारण करनेवाली है, जो सम्यक्त्त्वरूपी रत्नों और मरिणयों का सार है (उसको मैं जानता हूँ)। [5] जिस प्रकार (वह) सागर के समान गंभीर है, जानता हूँ। जिस प्रकार (वह) मेरुपर्वत के समान धैर्यवाली है (उसको) (मैं) जानता हूँ। [6] (मैं) लवण और अंकुश की माता को जानता हूँ । जानता हूँ, जिस प्रकार (वह) जनक की पुत्री है । [7] राजा भामण्डल की बहिन को जानता हूँ, (मैं) इस राज्य की स्वामिनी को जानता हूँ। [8] जिस प्रकार (वह) अन्तःपुर में श्रेष्ठ है, मैं जानता हूँ। जिस प्रकार (वह) मेरे लिए प्राज्ञा (पालन) करनेवाली है (मैं) जानता हूँ।
धत्ता - किन्तु नगर के लोगों द्वारा मिलकर मेरे लिए घर में हाथों को ऊँचे करके जो अपयश (मेरे) ऊपर डाला गया है, एक यह (ही) समझने (जानने) के लिए (मैं) (समर्थ) नहीं (हूँ)।
83.4
[1] उस अवसर पर रत्नाश्रव (से उत्पन्न) के पुत्र विभीषण राजा के द्वारा त्रिनटा
अपभ्रंश कान्य सौरभ ]
[
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