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[9] हे जीव ! तू धन (और) नौकर-चाकर को मन में रखते हुए शान्ति नहीं पायेगा । आश्चर्य ! तो भी (तू) उनको-उनको ही मन में लाता है (और) (उनसे) विपुल सुख (व्यर्थ में) (ही) पकड़ता है ।
[10] हे मूढ़ ! (यह) सब (संसारी वस्तु-समूह) ही बनावटी (है) । (इसलिए) तू (इस) स्पष्ट (वस्तुरूपी) भूसे को मत कूट (अर्थात् तू इसमें समय मत गवाँ) घर (और) नौकर-चाकर को शीघ्र छोड़कर तू निर्मल शिवपद (परम शान्ति) में अनुराग कर ।
[11] (इन्द्रिय-) विषय-सुख दो दिन के (हैं), और फिर दुःखों का क्रम (शुरू हो जाता है) । हे (प्रात्म-स्वभाव को) भूले हुए जीव ! तू अपने कंधे पर कुल्हाड़ी मत चला ।
[12] (तू) (चाहे) (शरीर का) उपलेपन कर, (चाहे) घी, तेल आदि लगा, (चाहे), सुमधुर आहार (उसको) खिला, (और) (चाहे) (उसके लिए) (और भी) (नाना प्रकार की) चेष्टाएँ कर, (किन्तु) देह के लिए (किया गया) सब कुछ ही व्यर्थ हुअा (है), जिस प्रकार दुर्जन के प्रति (किया गया) उपकार (व्यर्थ होता है)।
[13] अस्थिर, मलिन और गुणरहित शरीर से जो स्थिर, निर्मल और गुणों (की प्राप्ति) के लिए श्रेष्ठ (स्व-पर उपकारक) क्रिया उदय होती है, वह क्यों नहीं की जानी चाहिए ?
[14] यदि आत्मा नित्य और केवलज्ञान स्वभाववाली समझी गई (है), तो हे मूर्ख ! (इस आत्मा से) भिन्न शरीर के ऊपर आसक्ति क्यों की जाती है ?
[15] जिस (मुनि) के हृदय में (आध्यात्मिक) ज्ञान नहीं फूटता है, वह मुनि सभी शास्त्रों को जानते हुए भी सुख नहीं पाता है (और) विभिन्न कर्मों (मानसिक तनावों) के कारणों को करता हुआ ही (जीता है)।
[16] आध्यात्मिक ज्ञान (से रहित) के बिना हे जीव ! तू (आत्म-) तत्व को असत्य मानता है । (तथा) कर्मों से रचित उन (शुभ-अशुभ) चित्तवृत्तियों को (तू) स्वयं की (चित्तवृत्ति) समझता है ।
[17] (हे मनुष्य) ! न ही तू पंडित (है), न ही (तू) मूर्ख (है), न ही (तू) धनी (है), न ही (तू) निर्धन (है), न ही (तू) गुरु (है)। कोई शिष्य (भी) नहीं (है) । (ये) सभी (बातें) कर्मों की विशेषता (है)।
अपभ्रंश काव्य सौरम ]
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