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जोय हुँ
चलिया
12. सव्वत्थ
वणम्मि
गवेसियउ
मह
सोएँ
पुरजण
सोसियउ
13. तहुँ
खोज्जु
नियंतई
जंतइँ
संत हूँ
पत्तइँ
गिरि-गुह-वारि
पुण
तहिं
तहु
कर चलाइँ
बहु-बुह-जरगणइँ
दिट्ठइँ
दहदिसि
पडिय
तणु
1. मुच्छाविय
( जोय ) 4 / 1
(चल) भूक 1 / 2
अव्यय
(वण ) 7/1
( गवेस - गवेसियअ ) भूकृ 1 / 1 'अ' स्वार्थिक
(मह) 3 / 1 वि
( सोअ) 3 / 1
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[ ( पुर ) - ( जण) 1 / 1]
(सोस सोसियअ ) भूकृ 1 / 2 'अ' स्वार्थिक
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(त) 6 / 1 स
( खोज्ज) 2/1
( रियरिणयंत) वकृ 1/2
( जा जंत) वकृ 1/2
(संत) भूकृ 1 / 2 अनि
( पत्त ) भूकृ 1 / 2 अनि
[ ( गिरि) - ( गुह ) - ( वार) 7/1]
अव्यय
अव्यय
(त) 6 / 1 स
[ (कर) - (चल) 1/2]
[ ( बहु ) वि - (दुह ) - ( जणण) 1/2 वि ]
( दिट्ठ) भूकृ 1 / 2 अनि
[ ( दह) - (दिसि ) 42/2]
( पड) भूकृ 1 / 2
( तणु) 6 / 1
2. तृतीया विभक्ति में भी शून्य प्रत्यय का प्रयोग पाया जाता है ( श्रीवास्तव, पृष्ठ 147 ) ।
खोजने के लिए चले
सब ( सारे )
वन में खोजा गया
महान
शोक के कारण
नगर के जन
कृश हो गये ( थे)
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उसके
मार्ग चिह्न
देखते हुए
जाते हुए
थके हुए
पहुंचे
पर्वत की गुफा के दरवाजे पर
फिर
वहाँ
उसके
1.
द्वितीया विभक्ति साथ में होने से 'जोअ' को हेत्वर्थ कृदन्त का प्रयोग मानें तो 'जोअ = देखना ' होना चाहिए था । तब इसका प्रयोग 'उ' प्रत्यय लगाकर ( जोअ + उं) 'जोइउं' होना चाहिए था । यदि हम 'जोय' को संज्ञा मानते हैं तो 'तं' को द्वितीया विभक्ति नहीं कर सकते, उसे अव्यय मानना होगा। यह शब्द विचारणीय है ।
अपभ्रंश भाषा का अध्ययन,
हाथ और पैर
बहुत दुःख के जनक
देखे गये
3.20
( मुच्छ + आव = मुच्छाव (भुकृ) मुच्छाविय मूच्छित कर दी गई (स्त्री) मुच्छाविया) प्रे. भूकृ 1 / 1
दसों दिशाओं में
पड़े हुए शरीर के
3. षष्ठी पुल्लिंग एकवचन के लिए 'हु' प्रत्यय भी काम में आता है ( श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृ ठ 150 ) ।
4. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे. प्रा.व्या. 3-137) '
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