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दुल्लहु लहिवि भोयह पेरिउ जेण इंधरणकज्जें कप्पयर मूलहो खंडिउ तेण
(दुल्लह) 2/1 वि (लह+इवि) संकृ (भोय)4/2 (पेर-→पेरिअ) भूकृ 1/1 (ज) 3/1 स [(इंधण)-(कज्ज):/1] (कप्पयरु) 1/1 (मूल) 5/1 (खंड-→खंडिअ) भूकृ 1/1 (त)3/1 स
दुर्लभ पाकर भोगों के लिए लगा दिया गया जिसके द्वारा इंधन के प्रयोजन से कल्पतर मूल से काटा गया उसके द्वारा
1. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 1481
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
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