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लइ जिय जोवियलाहडउ
(लय→लअ) संकृ
ग्रहण करके (जिय) 8/1
हे मनुष्य [(जीविय)-(लाह+अडअ) 2/, 'अडअ' स्वा.] जीवन के लाभ को (देह) 2/1
देह को . अव्यय
मत . (ले) विधि 2/1 सक (णिरत्थ) 2/1 वि
निरर्यक
बना
णिरत्यु
13. एक्काहि
इंदियमोक्कलउ पाव दुक्खसयाई जसु
(एक्क) 7/1 वि
एक (विषय) में [(इंदिय)-(मोक्कलअ)1/1 वि (दे) 'अ' स्वा.] अनियन्त्रित इन्द्रिय (पाव) व 3/1 सक
पाता है [(दुक्ख)-(सय) 2/2वि]
सैकड़ों दुःखों को (ज) 6/1 स
जिसकी अव्यय
फिर (पंच) 1/2 वि
पाँचों ही (मोक्कल) 1/2 वि (दे)
स्वच्छन्द (त) 6/1 स
उसका (उसके लिए) (पुच्छ--पुच्छिज्ज) व कर्म 3/1 सक पूछा जाता है (पूछा जाय) (काई) 1/1 सवि
क्या
पंचवि मोक्कला तसु पुच्छिज्जइ काई
14. जइ
इच्छहि संतोसु करि जिय सोक्खही विउलाह। अह्वा
अव्यय (इच्छ ) व 2/1 सक (संतोस) 2/1 (कर) विधि 2/1 सक (जिय) 8/1 (सोक्ख) 6/2 (विउल) 6/2 वि अव्यय (णंद) 2/1 (त)4/2 सवि (प्राकृत) (क) 11 सवि (कर) व 3/1 सक (रवि) 2/1 (मेल्ल+इवि) संकृ (कमल)4/2
यदि चाहता है सन्तोष कर हे मनुष्य सुखों को विपुल वाक्यालंकार
को कर रवि मेल्लिवि कमलाह
उनके लिए कौन करता है सूर्य को छोड़कर कमलों के लिए
15. मणुयत्तणु
(मण्यत्तण) 21
मनष्यता को
1. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-134)।
1981
[ अपभ्रश काव्य सौरभ
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