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8
वि
होइ
काई
बहुत
संपयई
जडू
किविहं
धरि
होइ
उबहिणी
खारें
भरिउ
पाणिउ
प्रियइ
ण
कोइ
9. पत्तह
दिण्ण
योवड
रे
जिय
होइ
बहुत्तु
वह
बीउ
धरणिहि
बडिऊ
वित्यरु
लेइ
महंतु
10. काई बहुत्त
196 ]
अव्यय
(हो) व 3/1 अक
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(काई) D/T सवि
( बहुत्तअ ) 3 / वि 'अ' स्वार्थिक
( संपयअ ) 3/1 'अ' स्वार्थिक
अव्यय
(किविण ) 6/2 वि (घर) 7/1
( हो) व 3 / 1 अक
[ ( उवहि ) - ( गीर) 1 / 1]
(खार) 3/1
( भर मरिअ ) भूक 1/1 (पाणिअ) 2/1
(पिय) व 3 / 1 सक
अव्यय
(क) 1/1 सि
(पत्त ) 4/2
( दिण्णअ) भूकृ I / I अनि 'अ' स्वार्थिक (थोव + अडअ ) 1/1 वि 'अडअ' स्वार्थिक.
अव्यय
( जिय ) 8 / 1
(हो) व 3 / 1 अक
( बहुत्त ) 1 / 1 कि
( वड ) 6 / 1
(after) 1/1
(धरण) 7/1
(पड
( वित्थर ) 2 / 1 कि
पडिअ ) भूक D/D
( ले ) व 3 / 1
सक
( महंत ) 2 / 1 कि
1. अनिश्चितता के लिए 'इ' प्रत्यय जोड़ दिया जाता है ।
2. श्रीवास्तव, अपभ्रश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 150
(काई) 1 / 1 सवि
( बहुत्तअ ) 3 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
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भी
होता है
क्या
बहुत
सम्पदा से
चो
कृपरणों के
घर में
होती है
समुद्र का जल
खार से
मरा हुआ
पानी को
बीता है
नहीं
कोई
पात्रों के लिए
दिया हुआ.
घोड़ा.
अरे
हे मनुष्य होता है.
बहुतः
बट का
बीज
पृथ्वी पर ( में )
बड़ा हुआ
विस्तार
नेता है
बड़ा
क्या
बहुत
[ अपभ्रंश काव्य सौरम
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