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महाकवि वीर
महाकवि वीर अपभ्रंश भाषा के महान कवियों में से एक हैं। वीर प्रारम्भ में संस्कृत भाषा में काव्य-रचना में प्रवृत्त थे किन्तु अपने पिता के मित्र श्रेष्ठी तक्खड़ के प्रोत्साहित करने पर इन्होंने लोकभाषा अपभ्रंश में काव्य-रचना की।
वीर का जन्म मालवदेश के गुलखेड़ नामक ग्राम में जैन धर्मानुयायी, लाडवर्ग गोत्र में हुअा था । इनकी मां का नाम श्रीसंतुवा था । इनके पिता देवदत्त स्वयं एक महाकवि थे।
इनका जीवनकाल विक्रम सम्वत् 1010-1085 तक माना गया है । इस प्रकार इनका समय 10-11वीं शती सिद्ध होता है ।
महाकवि वीर अपभ्रंश के उन शीर्षस्थ साहित्यकारों में से हैं जो अपनी एकमात्र कृति के कारण सुविख्यात हुए हैं । 'जंबूसामिचरिउ' इनकी एकमात्र कृति है । जबसामिचरिउ-इस काव्य में जैनधर्म के अन्तिम केवलि 'जंबूस्वामी' का जीवन-चरित ग्यारह सन्धियों में गुम्फित है।
जंबूस्वामी भगवान महावीर के गणधर सुधर्मा स्वामी के शिष्य थे । भगवान महावीर के निर्वाण के 64 वर्ष पश्चात इनका निर्वाण हुआ था ।
जंबूस्वामी का जीवनचरित साहित्यकारों एवं धर्मप्रेमियों में अत्यन्त लोकप्रिय रहा है, इसका कारण है इनके चरित्र की विशेषता । इनके जीवन का घटनाक्रम अत्यन्त रोचक एवं अनूठा है । ऐसा घटनाक्रम फिर कभी न देखा गया, न साहित्य में अन्यत्र पढ़ा गया न सुना गया । जंबू कुमारावस्था में विवाह के बन्धन में न फंसकर संन्यास ग्रहण करना चाहते थे परन्तु परिवारजनों के बहुत आग्रह पर जंबू सशर्त विवाह के लिए अपनी स्वीकृति दे देते हैं । उनका कहना था कि मैं एक शर्त पर विवाह कर सकता हूँ-विवाह के पश्चात मैं अपनी पत्नियों के साथ एक रात व्यतीत करूंगा, यदि उस एक रात में वे मुझे संसार की और आकर्षित कर लेती हैं तो मैं संन्यास-विचार को त्यागकर गृहस्थ जीवन अंगीकार कर लूंगा अन्यथा प्रातः होते ही मैं संन्यास धारण कर लूंगा । और इस शर्त में जीत जंबूकुमार की ही होती है ।
इस कथानक को, महाकाव्य के तत्वों का समावेश कर महाकाव्योचित गरिमा प्रदानकर महाकवि ने अपभ्रंश वाङमय को अलंकृत किया है ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
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