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पाठ-13 धण्णकुमारचरिउ
3.16 प्रस्तुत काव्यांश महाकवि रइधू द्वारा लिखित धण्ण कुमारचरिउ की तीसरी सन्धि से लिया गया है । भोगावती अपने पुत्र अकृतपुण्य के साथ अपने भाई के यहां रहती है । अकृतपुण्य वहाँ गाय-बछड़े चराता है ।
एक दिन अकृतपुण्य गाय-बछड़े चराते हुए घने जंगल में चला जाता है, थकान होने के कारण अपना वस्त्र बिछाकर पेड़ के नीचे सो जाता है। उसी समय तेज आँधी चलती है, बिजली चमकती है, जिससे घबराकर गाय-बछड़े अपने घर आ जाते हैं। उन गाय-बछड़ों को जंगल में न पाकर अकृतपुण्य भय के कारण जंगल में ही रह जाता है ।
पुत्र को घर न पाया जानकर माता भोगावती अत्यधिक दुःखी होती है और सभी को साथ लेकर पुत्र को ढूंढने जंगल की ओर जाती है। अकृतपुण्य मामा के साथ ग्रामवासियों को शस्त्र लिए हुए आते देखता है तो सोचता है कि गाय-बछड़ों के खो जाने के कारण ये सब मुझे मारने आए हैं, इसलिए वह और आगे भाग जाता है ।
भय से भागते हुए अकृतपुण्य एक गुफा में पहुंच जाता है। वहाँ मुनि वीरसेन शास्त्र पढ़ रहे थे। अकृतपुण्य शुभगति और सुखों को देनेवाले उन वचनों को सुनता है, उन पर चिन्तन करता है कि उसी समय एक सिंह के आक्रमण से मारा जाता है । शुभ भावों से मरकर वह प्रथम स्वर्ग को प्राप्त करता है।
319 स्वर्ग के सुखों को देखकर वह विचार करने लगता है कि मेरा कौनसा पुण्य है जिससे मुझे यह सब प्राप्त हुआ। अकृतपुण्य स्वर्ग में अपने दुःखों को याद करता है उसी समय उधर उसकी माता व मामा उस गुफा के द्वार पर आते हैं और भयंकर दुःख देनेवाला दृश्य (अकृतपुण्य का क्षत-विक्षत शरीर) देखते हैं ।
3.20 पुत्र के दसों दिशाओं में बिखरे अंगों को देखकर माता मूच्छित हो जाती है, नाना प्रकार से रुदन करती है और स्वयं भी मरने को तैयार हो जाती है । स्वर्ग से माता का विलाप एवं दुःख देखकर व गुफा में स्थित मुनिराज के चरणों में प्रणाम करने की भावना लेकर अकृतपुण्य माया से अपनी पुरानी देह का रूप धारण कर माता के सामने पाकर उसको प्रणाम करता है।
3.21 अकृतपुण्य रोती हुई माता को अनेक प्रकार से समझाता है। संसार की प्रसारता, जीवन की क्षणभंगुरता को समझाते हुए जिन-आगम का स्मरण करने को कहता है जिसके कारण स्वयं प्रकृतपुण्य ने प्रथम स्वर्ग में देवों द्वारा पूज्य 'सुर' का स्थान प्राप्त किया।
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अपभ्रंश काव्य सौरम
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