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སྠཽ ཝཿ སྠཽ ། ༧ ཎྞཱ སྠཽ ཟླ ཡ ལྕ ལྷ སྠཽ ཎྜཱ སྠཽ ཤྲཱ སྠཽ བ ཟ སཿ གླ ༥ སྥོ ཙྪཱ ར ཟ ཞཱ
मोहहि
तेण
ग
मुक्ख
9. मोक्खु
वावहि
I.......
विचितहि
186 ]
( दुक्ख ) 1/1
अव्यय
(त) 1 / 1 सवि
( सुक्ख ) 1/1
( किअ ) भूकृ 1 / 1 अनि
(ज) 1 / 1 सकि ( सुह) 1/1 (त) 1 / 1 सवि
अव्यय
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अव्यय
( दुक्ख ) 1 / 1
( तुम्ह) 3 / 1 स ( जिय ) 8 / 1 (मोह) 3/2
(वस ) 7/1
( गय) भूकृ 1 / 2 अनि
अव्यय
अव्यय
( पायअ ) भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक
( मुक्ख ) 1/1
( मोक्ख ) 2/1
अव्यय
(पाव) व 2 / 1 सक (ita) 8/1
( तुम्ह) 1 / 1 स ( घण ) 2 / 1
( परियण) 2/1
(चितचित) व 1/1
अव्यय
अव्यय
( विचित) व 2 / 1 सक
(त) 2/2 स
अव्यय
अव्यय
(त) 2/2 स
अव्यय
दुःख
ही
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वह
सुख
माना गया
नो
सुख
वह
ही
और
दुःख
तेरे द्वारा
हे जीव
श्रासक्ति के कारण
परतन्त्रता में
डूबा है
इसलिए
नहीं
प्राप्त की गई
परम शान्ति
शान्ति
नहीं
पाता है ( पायेगा )
हे जीव
त
धन को
नौकर-चाकर को
1. कभी-कभी एकवचन के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने के लिए बहुवचन का प्रयोग किया जाता है ।
मन में रखते हुए
तो
भी
मन में लाता है
उनको
आश्चर्य
हो
उनको
पादपूरक
[ अपभ्रंश काव्य सौरम
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