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अण्णु
परि
(अण्ण) 2/1 वि (परं+इ) परं=अव्यय इ-अव्यय (अवहार+उ) विधि 2/1 सक
दूसरीको पूरी तरह से, और छोड़ दे
प्रवहार
16. देहादेहहि-देहादेहहिं
(देह)+ (अदेहहिं)] [(देह)-(अदेह) 7/1]
देह में और बिना देह के अपने में
जो वसई भेयाभय-णएण
(ज) 1/1 सवि (वस) व 3/1 अक [(भेय)+ (अभेय)+ (णएण)] [(भेय)-(अभेय)-(णअ) 3/1] (त) 1/1 सवि (अप्प) 1/1 (मुण) विधि 2/1 सक (जीव) 8/1 (तुम्ह) 1/1 स (किं) 1/1 सवि (अण्ण) 3/1 सवि (बहुअ) 3/1 वि
रहता है भेद और अभेददृष्टि से वह प्रात्मा समझ हे जीव
अप्पा मुणि जीव तु:→तुहुं
कि
क्या
प्रणे
दूसरी
बहुएण
बहुत से
17. जीवाजीव
मत
एक्कु करि लक्खरण
भएँ
[(जीव)+ (अजीव)][(जीव)-(अजीव) 2/1] जीव और अजीव को अव्यय (एक्क) 2/1 वि (कर) विधि 2/1 सक
कर (लक्खण) 6/1
लक्षण के (भेअ) 3/1
भेद से (भेअ) 1/1 (ज) 1/1 सवि (पर) 1/1 वि (त) 1/1 सवि (पर) 1/1 वि (भरण) व 1/1 सक
कहता हूँ (मुरण) वि 2/1 सक
नान, समझ (अप्प) 2/1
आत्मा को (अप्प) 8/1
हे मनुष्य
जो
वह
भरणमि मुरिण प्रप्पा अप्पू
1. पदों के अन्त में यदि 'उ, हं, हि, हं' इन चारों अक्षरों में से कोई भी अक्षर आ जाय तो इनका उच्चारण
प्रायः हस्व रूप से होता है । इसलिए यहां 'देहादेहहिं' और 'तृहुं' को क्रमशः 'देहादेहहिँ' और 'तहँ' किया गया है।
अपभ्रंश काव्य सौरम ]
[
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