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भी
(मुद्दा) 1/1 अव्यय अव्यय (त) 1/1 सवि (मुण) विधि 2/1 सक (देअ) 1/1 (अणंत) 1/1 वि
वह
देउ
जानो दिव्यात्मा अनन्त
अरणंतु
12. वेहि
सत्यहि इंदियहि
जो
जिय
मुणहु
(वेय) 3/2
आगमों द्वारा (सत्थ) 3/2
शास्त्रों (अन्यों) द्वारा (इंदिय) 3/2
इन्द्रियों द्वारा (ज) 1/1 सवि
जो (जिय) 1/1
चैतन्य (मुण- हु) (मुण) विधि 2/1 सक
जानो हु-अव्यय
निश्चय ही अव्यय
नहीं (जा) व 3/1 अक
होता है (णिम्मल)-(झाण)3 6/2]
निर्मल ध्यान का (ज) 1/I सवि
जो (विसअ) 1/1
विषय (त) 1/1 सवि
वह [(परम)+ (अप्पु)] [ (परम)वि-(अप्प)1/1] परमात्मा (अणाइ) 1/1 वि
अनादि
जाइ हिम्मल-झारणहर जो विसउ सो परमप्पु अगाइ
13. जेहउ
णिम्मलु णाणमउ सिद्धिहि→सिद्धिहिं णिवसई देउ तेहउ
(जेहअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक (गिम्मल) 1/1 वि (गाणमअ) !/1 वि (सिद्धि)7/1 (णिवस) व 3/1 अक (देअ) 1/1 (तेहअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक
जिस तरह का निर्मल ज्ञानमय मोक्ष में रहता है दिव्यात्मा उस तरह का
1. पदों के अन्त में यदि ", हं, हि, हं' इन चारों अक्षरों में से कोई भी अक्षर आ जाय तो इनका उच्चारण
प्रायः ह्रस्व रूप से होता है । इसलिए यहां 'देउं' का ह्रस्व रूप बताने के लिए 'देउँ' किया गया है
(हे प्रा.व्या. 4-441)। 2. देखें टिप्पणी 1 । यहाँ 'झाणहं' को 'झाणहँ' किया गया है। 3. यहाँ बहुवचन का एकवचनार्थ प्रयोग हुआ है (श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृ. 151)। 4. देखें टिप्पणी 1 । यहाँ 'सिद्धिहि' को 'सिद्धिहिँ' किया गया है ।
अपभ्रंश काव्य सोरम ]
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