Book Title: Apbhramsa Kavya Saurabh
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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ਮਜੋਰ
18. श्रमण प्ररिदिउ
गाणमउ
मुत्ति-विरहिउ
चिमित्तु
अप्पा
इंदिय-विसउ
णवि
लक्खण
एह
णिरुत्तु
I.
जो
अप्पा
झाएइ
तासु
गुरुक्की
वेल्लडी
संसारिरिंग
तुइ
20. देहादेवलि
जो
वसड़
देउ
श्ररणाइ-अनंतु
केवल-णाण- फुरंत तणु
सो
19 भव-तणु- मोय विरत मणु [ ( भव) - ( तणु ) - ( भोय ) - (वित्त) भूकृ अनि- संसार, शरीर और भोगों से
उदासीन हुआ मन
(मण ) 1 / 1 ] (ज) 1 / 1 सवि
जो
( अप्प ) 2 / 1
श्रात्मा को (का) ध्यान करता है
( झाअ ) व 3 / 1 सक
(त) 6/1 स
उसकी
( गुरुक्क (स्त्री) गुरुक्की) 1 / 1 वि
घनी
(वेल्ल + अड > (स्त्री) वेल्लडी) 1 / 1 'अड' स्वा. बेल
( संसारिणी) 1 / 1 वि
( तुट्ट) व 3 / 1 अक
परमप्यु
रिंणमंतु
( अभेअ ) 2 / 1 वि
( अमरण) 1 / 1 वि
(अरण + इंदिय) 1 / 1 वि
( गाणमअ) 1 / 1 वि
[ ( मुत्ति ) - (विरहिअ ) 1 / 1 वि ] [ ( चित्त+मित्त
चिमित्त ) 1 / 1 ]
( अप्प ) 1 / 1
[ ( इंदिय) - (विसअ ) 1/1]
अव्यय
182 ]
( लक्खण) 1 / 1
(अ) 1 / 1 सवि
( णिरुत्त) भूकृ 1 / 1 अनि
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[ ( देह देहा) 1 - ( देवल ) 7 / 13
(ज) 1 / I सवि
श्रभेदरूप
( बस ) व 3 / 1 अक
(देअ) 1/1
मनरहित इन्द्रियरहित
ज्ञानमय
मूर्तिरहित ( अमूर्त)
चैतन्यस्वरूप
श्रात्मा
इन्द्रियों का विषय
नहीं
लक्षण
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यह
बताय गया
संसाररूपी
नष्ट हो जाती है
बसता है।
दिव्य आत्मा श्रनादि-अनन्त
[ (अरगाइ) वि- (अनंत ) 1 / 1 वि ]
[ (केवल ) - (जाण) - (फुरंत ) वकृ- ( तणु ) 1 / 1] केवलज्ञान से चमकता हुआ
शरीर
देहरूपी मन्दिर में
जो
समासगत शब्दों में रहे हुए स्वर अक्सर ह्रस्व के स्थान पर दीर्घ और दीर्घ के स्थान पर ह्रस्व हो जाया करते हैं (हे. प्रा. व्या. 1-4 ) ।
(त) 1 / 1 सवि
वह
[ (परम) + (अप्पु ) ] [ ( परम ) - ( अप्प ) 1 / 1] परम श्रात्मा ( भिंत) 1 / 1 वि
सन्देहरहित
[ अपभ्रंश काव्य सोम्भ
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