________________
लेवि महव्वय सिव लहहिं झाएविणु तत्तस्सु।
(ले+ एवि) संक (महव्वय) 2/2 (सिव)2/1 (लह) व 3/2 सक (झा+एविणु) संक (तत्त) 6/1
ग्रहण करके महावतों को मोक्ष प्राप्त करते हैं ध्यान करके तत्त्व (का) को
19. देवं
दुक्कर निप्रय धणु करण
देने के लिए दुष्कर निजधन को करने के लिए नहीं तपको दिखाई देता है इसी प्रकार सुख को भोगने के लिए
तउ
(दा+एवं) हे (दुक्कर) 1/1 वि [(निअय) वि-(धण) 2/1] (कर+अण) हेकृ अव्यय (तअ) 2/1 (पडिहा) व 3/1 अक अव्यय (सुह) 2/1 (भुज+अणहं) हेक (मण) 1/1 अव्यय (भुज+अगहिं)हेक अव्यय (जा) व 3/1 अक
पडिहाइ एम्बई सुह भुजरणहं मणु
मन
पर
भुजहिं
किन्तु भोगने के लिए नहीं उत्पन्न होता है
जाड
1. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है(हे.प्रा.व्या. 3-134)।
भपभ्रंश कान्य सौरभ
[
173
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org