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पाठ-13
परमात्मप्रकाश
पुणु-पुणु परणविवि पंच-गुरु भावें चित्ति धरेवि भट्टपहायर णिसुणि तुहुँ→तुहुं। अप्पा
अव्यय (पणव+ इवि) संकृ [(पंच) वि-(गुरु) 2/2] (भाव) 3/1 (चित्त) 7/1 (धर+एवि) संकृ (भट्टपहायर) 8/1 (णिसुण) विधि 2/1 सक (तुम्ह) 1/1 स (अप्प) 2/1 (तिविह) 2/1 वि (कह+ एवि) हेकृ
बार-बार प्रणाम करके पाँच गुरुनों को अन्तरंग बहुमान (भाव) से चित्त में धारण करके हे भट्ट प्रभाकर सुन
तिविहु
प्रात्मा को तीन प्रकार की कहने के लिए
कहेवि
2. अप्पा
ति-विह मुरणेवि
लहु
मूढउ
आत्मा को तीन प्रकार की जानकर शीघ्र मच्छित छोड़ आत्मावस्था (भाव) को जान स्वबोध के द्वारा ज्ञानमय
मेल्लहि
(अप्प) 2/1 (तिविह) 2/1 वि (मुण+एवि) संकृ अव्यय (मूढ अ) 2/1 वि 'अ' स्वार्थिक (मेल्ल) विधि 2/1 सक (भाअ) 2/1 (मुरण) विधि 2/I सक (स-गणाण) 3/1 (णाणमअ) 1/1 वि (ज) 1/1 सवि [(परम)+ (अप्प)+ (सहाउ)] [(परम) वि-(अप्प)-(सहाअ) 1/1]
भाउ
मुणि
सण्णाणे
जो
जो परमप्प-सहाउ
परमात्म-स्वभाव
3.
मूढ़
वियक्खणु बंभु पर
(मूढ) 1/1 वि (वियक्खरण) 1/1 वि (बंभ) 1/1 (पर) 1/1 वि
मूच्छित जाग्रत प्रात्मा
परम
1. पदों के अन्त में यदि 'उ, हुं, हि, हं' इन चारों अक्षरों में से कोई भी अक्षर आ जाय तो इनका उच्चारण
प्रायः ह्रस्व रूप से होता है। इसलिए यहाँ तुहं का ह्रस्व रूप बताने के लिए तुहुँ किया गया है (हे.प्रा.व्या. 4-411)।
1741
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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