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पाठ-6
महापुराण
सन्धि-16
16.3
13. थिउ
चक्कु
ठहर गया चक्र
नहीं
पुरवरि
पइसरह
गाव
केरण
वि धरियउ ससिबिबु
(थिअ) भूकृ I/1 अनि (चक्क ) 1/I अव्यय (पुरवर) 7/1 (पइसर) व 3/1 सक अव्यय (क)3/1 स अव्यय (धर→धरियअ) भूकृ 1/I 'अ' स्वाथिक [(ससि)-(बिंब) 1/1] अव्यय (मह) 7/1 (तारायण) 3/2 (सुरवर) 3/2 (परियर→परियरिय) भूकृ 1/I 'अ' स्वा.
श्रेष्ठ नगर में प्रवेश करता है (किया) मानो किसी के द्वारा पादपूरक पकड़ लिया गया चन्द्रमण्डल मानो आकाश में तारागणों द्वारा श्रेष्ठ देवताओं के द्वारा घेरा गया
णहि तारायणहि सुरवरेहि परियरियउ
16.4
1.
ता भरिणय रिगराइरणा रूढराइरणा चंडवाउवयं
कि
अव्यय
तब (भण→मणिय) भूकृ 1/1
कहा गया (रिणराइ) 3/1 वि
निर्भय (के द्वारा) [(रूढ) वि-(राअ) 3/1]
प्रसिद्ध राजा के द्वारा [[(चंड)-(वाउ)-(वेय) 1/1]वि] प्रचण्ड वायु के वेगवाला अव्यय
क्यों [(थिय)+ (इह)] (थिय) भूकृ 1/1 अनि ठहरा, इह =अव्यय
यहां (रहंग-य) 1/1 'य' स्वार्थिक
चक्र [(णिच्चल)+ (अंगयं)]
दढ़ अंगवाला (णिच्चल) वि-(अंगय) 1/1 'य' स्वा.] वि]
थियमिह
रहंगर्य णिच्चलंगयं
1. निराधि→निराहि→निराइ→णिराइ ।
66 ]
[ अपभ्रंश काव्य सोरम
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