________________
जा
भिड
माणु
(ण) 6/1 स (भिड) व 3/1 अक (दे) (भाणु)6/1 (कर) 1/2 (खञ्च) व 3/1 सक
कर
खञ्चइ
उससे भिड़ता है सूर्य की किरणें . परास्त करती है (परास्त कर देती हैं) धन राजकुल के चोरों की स्तुति से इकट्ठा करता है
धणु राउल-चोरग्गिहुँ
(धण) 2/1 [(राउल)-(चोर)-(ग्गी) स्त्री 5/0] (सञ्च) व 3/1 सक
9. विन्ध
कण्टेहि
(विन्ध) व 3/1 सक (कण्ट) 3/2 अव्यय (दुव्वयण) 3/2
(विस)-(रुक्ख) 1/1] अव्यय (मण्ण) व कर्म 3/1 सक (सयण) 3/2
बींध देता है काँटों से पादपूरक दुर्वचनरूपी
दुब्वयणेहि विस-रुक्खु
विष-वृक्ष
मणिज्जा सयहिं
की तरह माना जाता है स्वजनों द्वारा
10. धम्म-विहणउ
पाव-पिण्डु अणिहालिय-थामु
[(धम्म)-(विहू णअ) भूकृ 1/1 'अ' स्वार्थिक] धर्म-रहित [(पाव)-(पिण्ड) 1/1]
पाप का पिण्ड [(अण)+ (इह)+ (आलिय) + (थामु)] नहीं, यहाँ, निवास किया [(अण)-(इह)-(आलि→आलिय) भूकृ - हुआ, स्थान (थाम) I/I (दे)] (त) 1/1 सवि
वह (रोव+एवउ) विधि कृ 1/1
रोया जाना चाहिए (ज) 6/1 स
जिसका [ (महिस)-(विस)-(मेस) 3/2]
महिष, वृष और मेष के द्वारा (णाम) 1/1
नाम
सो रोवेवउ जासु महिस-विस-मेसहि
णामु
77.4
1.
तं णिसुणेवि पहाणउ भणइ विहीसण-राणउ
(त) 2/1 सवि (णिसुण+एवि) संकृ (पहाणअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक (भण) व 3/1 सक [(विहीसण)-(राणअ) 1/I 'अ' स्वार्थिक]
उसको सुनकर प्रधान कहता है (कहा) विभीषण राजा
1. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हे.प्रा.व्या. 3-134)।
52
]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org