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गम्पिणु। मेह-विन्दे आलग्गउ तडि-करवाल-पहारेहिं
[गम+एप्पिणु =गमेप्पिणु-→गम्पिणु] संकृ जाकर [(मेह)-(विन्द)2 7/1]
मेघ-समूह को (आलग्ग→आलग्गअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वा. चिपक गई [(तडि)-(करवाल)-(पहार) 3/2]
बिजलीरूपी तलवार के प्रहारों
भग्गउ
(भग्गअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वाथिक
छिन्न-भिन्न कर दी गई
3.
जं विवरम्मुह चलिउ विसालउ उट्टि
जब विमुख (विपरीत मुख) को चली भयंकर
अव्यय (विवरम्मुह) 2/1 वि (चल→चलिअ) भूक 1/1 (विसाल अ) 1/1 वि 'अ' स्वा. (उट्ठ) भूक 1/1 (हण) विधि 1/1 सक (भण→भणन्त) व 1/1 (उण्ह+आल:-उण्हाल→उण्हालअ) 1/1 वि 'अ' स्वाथिक
उठी
भणन्तु
मारो कहती हुई उष्ण/ग्रीष्म ऋतु
उण्हालउ
4. धग-धग-धग-धगन्तु
(धग-धग-धग-धग) वकृ 1/1 (उद्धाइअ) भूक 1/1 अनि (हस हस हस हस) वकृ 1/1 (संपाइअ) भूकृ 1/1 अनि
खब (धग-धग) जलती हई ऊंची दौड़ो (उठी) उत्तेजित होती हुई प्रवृत्त हुई
हस-हस-हस-हसन्तु संपाइउ
5. जल जल जल जल जन (जल जल जल जल जल) व 3/1 अक तेजी से जलती है (जली) पचलन्तउ
(प-चल→पचलन्त-→पचलन्तअ) वकृ 1/1 . चलती हुई (कूच करती हुई)
'अ' स्वार्थिक जालावलि फुलिङ्ग [(जाला)+ (आवलि)+(फुलिङ्ग)]
लपट की, शृंखला से, चिगा[(जाला)-(आवलि)-(फुलिङ्ग)2/2] रियों को मेल्लन्तउ
(मेल्ल→मेल्लन्त→मेल्लन्तअ) वकृ 1/1 'अ' स्वा. छोड़ते हुए
धूम को, श्रृंखला के, ध्वजदण्डों को, ऊंचा करके
6. धूमावलि-धयबण्डा प्पिणु [(धूम)+ (आवलि)+ (धय)+ (दण्ड)+
(उन्भेप्पिण)] [(धूम)-(आवलि)-(धय)-
(दण्ड)-(उन्म+एप्पिणु) संकृ] वर-पाउल्लि-खन्यु (वर) वि-(वाउल्लि)-(खग्ग) 2/1] कड्ढेप्पिण (कड्ड+एप्पिणु) संक
श्रेष्ठ, तूफानरूपी, तलवार को खींचकर
1. देखें पृष्ठ 31, 27.14.9, पाद टिप्पणी। 2. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण
3-137)।
अपभ्रंश काव्य सौरम ]
[
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